710207 - Lecture Hindi - Gorakhpur
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada
Prabhupāda: (prayers)
- śrī-caitanya-mano-'bhīṣṭaṁ
- sthāpitaṁ yena bhū-tale
- svayaṁ rūpaḥ kadā mahyaṁ
- dadāti sva-padāntikam
(When will Śrīla Rūpa Gosvāmī Prabhupāda, who has established within this material world the mission to fulfill the desire of Lord Caitanya, give me shelter under his lotus feet?)
- vande 'haṁ śrī-guroḥ śrī-yuta-pada-kamalaṁ śrī-gurūn vaiṣṇavāṁś ca
- śrī-rūpaṁ sāgrajātaṁ saha-gaṇa-raghunāthānvitaṁ taṁ sa-jīvam
- sādvaitaṁ sāvadhūtaṁ parijana-sahitaṁ kṛṣṇa-caitanya-devaṁ
- śrī-rādhā-kṛṣṇa-pādān saha-gaṇa-lalitā-śrī-viśākhānvitāṁś ca
(I offer my respectful obeisances unto the lotus feet of my spiritual master and of all the other preceptors on the path of devotional service. I offer my respectful obeisances unto all the Vaiṣṇavas and unto the Six Gosvāmīs, including Śrīla Rūpa Gosvāmī, Śrīla Sanātana Gosvāmī, Raghunātha dāsa Gosvāmī, Jīva Gosvāmī and their associates. I offer my respectful obeisances unto Śrī Advaita Ācārya Prabhu, Śrī Nityānanda Prabhu, Śrī Caitanya Mahāprabhu, and all His devotees, headed by Śrīvāsa Ṭhākura. I then offer my respectful obeisances unto the lotus feet of Lord Kṛṣṇa, Śrīmatī Rādhārāṇī and all the gopīs, headed by Lalitā and Viśākhā.)
- he kṛṣṇa karuṇā-sindho
- dīna-bandho jagat-pate
- gopeśa gopikā-kānta
- rādhā-kānta namo 'stu te
(O my dear Kṛṣṇa, ocean of mercy, You are the friend of the distressed and the source of creation. You are the master of the cowherd men and the lover of the gopīs, especially Rādhārāṇī. I offer my respectful obeisances unto You.)
- tapta-kāñcana-gaurāṅgi
- rādhe vṛndāvaneśvari
- vṛṣabhānu-sute devi
- praṇamāmi hari-priye
(I offer my respects to Rādhārāṇī, whose bodily complexion is like molten gold and who is the Queen of Vṛndāvana. You are the daughter of King Vṛṣabhānu, and You are very dear to Lord Kṛṣṇa.)
- vāñchā-kalpatarubhyaś ca
- kṛpā-sindhubhya eva ca
- patitānāṁ pāvanebhyo
- vaiṣṇavebhyo namo namaḥ
(I offer my respectful obeisances unto all the Vaiṣṇava devotees of the Lord. They can fulfill the desires of everyone, just like desire trees, and they are full of compassion for the fallen souls.)
- śrī-kṛṣṇa-caitanya
- prabhu-nityānanda
- śrī-advaita gadādhara
- śrīvāsādi-gaura-bhakta-vṛnda
(I offer my obeisances to Śrī Kṛṣṇa Caitanya, Prabhu Nityānanda, Śrī Advaita, Gadādhara, Śrīvāsa and all others in the line of devotion.)
- hare kṛṣṇa hare kṛṣṇa kṛṣṇa kṛṣṇa hare hare
- hare rāma hare rāma rāma rāma hare hare
(My dear Lord, and the spiritual energy of the Lord, kindly engage me in Your service. I am now embarrassed with this material service. Please engage me in Your service.)
(01:45)
(Hindi)
Guest:
Prabhupāda:
(break) (end).
HINDI TRANSLATION
प्रभुपाद: (प्रार्थना)
श्री-चैतन्य-मनो-भिष्टम् स्थापितम् येन भू-तले स्वयं रूपः कदा मह्यम् ददाति स्व-पदान्तिकम (श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद, जिन्होंने इस भौतिक संसार में भगवान चैतन्य की इच्छा को पूरा करने का मिशन स्थापित किया है, मुझे अपने चरण कमलों के नीचे आश्रय कब देंगे?)
वंदे 'हं श्री-गुरुः श्री-युत-पद-कमलम् श्री-गुरुं वैष्णवामश्च श्री-रूपम सागरजातं सहगण-रघुनाथान्वितं तं सजीवम् साद्वैतं सावधूतं परिजन-सहितं कृष्ण-चैतन्य-देवम् श्री-राधा-कृष्ण-पादान सहगण-ललिता-श्री-विशाखान्वितांश्च (मैं अपने आध्यात्मिक गुरु और भक्ति मार्ग के सभी अन्य गुरुजनों के चरण कमलों में सादर प्रणाम करता हूँ। मैं सभी वैष्णवों और छह गोस्वामीगणों को सादर प्रणाम करता हूँ। जिनमें श्रील रूप गोस्वामी, श्रील सनातन गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी, जीव गोस्वामी और उनके सहयोगी शामिल हैं। मैं श्री अद्वैत आचार्य प्रभु, श्री नित्यानंद प्रभु, श्री चैतन्य महाप्रभु और श्रीवास ठाकुर सहित उनके सभी भक्तों को आदरपूर्वक प्रणाम करता हूं। फिर मैं भगवान कृष्ण, श्रीमती राधारानी और ललिता और विशाखा सहित सभी गोपियों के चरण कमलों को सादर प्रणाम करता हूं।)
हे कृष्ण करुणा-सिंधो दीन-बंधो जगत-पते गोपेश गोपिका-कांता राधा-कांता नमोऽस्तु ते (हे मेरे प्रिय कृष्ण, दया के सागर, आप दुःखियों के मित्र और सृष्टि के स्रोत हैं। आप ग्वालों के स्वामी और गोपियों, विशेषकर राधारानी के प्रेमी हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।)
तप्त-कांचन-गौरांगी राधे वृन्दावनेश्वरी वृषभानु-सुते देवी प्रणामामि हरि-प्रिये (मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ) राधारानी, जिनका शरीर पिघले हुए सोने के समान चमकीला है और जो वृंदावन की महारानी हैं। आप राजा वृषभानु की पुत्री हैं और भगवान कृष्ण को अत्यंत प्रिय हैं।)
वाञ्चा-कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिंधुभ्य एव च पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः (मैं भगवान के सभी वैष्णव भक्तों को सादर प्रणाम करता हूँ। वे कल्पवृक्षों की तरह सभी की इच्छाओं को पूरा कर सकते हैं और पतितों के प्रति करुणा से परिपूर्ण हैं। आत्माएँ।)
श्री-कृष्ण-चैतन्य प्रभु-नित्यानंद श्री-अद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौर-भक्त-वृंदा (मैं श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद, श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास और भक्ति की पंक्ति में अन्य सभी को प्रणाम करता हूँ।)
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे (मेरे प्रिय प्रभु, और प्रभु की आध्यात्मिक शक्ति, कृपया मुझे अपनी सेवा में लगाएँ। मैं अब इस भौतिक सेवा से शर्मिंदा हूँ। कृपया मुझे अपनी सेवा में लगाएँ।)
प्रभुपाद: श्रीमान भाईजी, सज्जनो और मात्र वृन्द, आज से कई लाखों वर्ष पहले, जबकि ये भारतवर्ष का नाम भी नहीं हुआ था उस समय का बात है। महाराज ऋषबदेव, समस्त पृथ्वी के सम्राट, अपने पुत्र को जो उपदेश दिया था उस विषय में मैं थोड़ा आपके सामने बोलना चाहता हूँ। ऋषबदेव कहते हैं:
- नायं देहो देह-भाजाम नृलोके
- कष्ठान् कामान अरहते विद-भुजाम ये
- तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वम्
- शुद्धयेद यस्माद ब्रह्म-सौख्यं त्व अनंतम
ऋषभदेव अपने पुत्र को याने राज्य कार्य से रिटायर करने के पहले पुत्र को उपदेश दे रहा है की बेटा ये तो शरीर है नायं देह जो की मनुष्य समाज में हमको मिला है; शरीर अनेक प्रकार है चौरासी लाख योनि "जलजा नव-लक्षनि स्थावर लक्ष-विमसति" जल के जानवर नौ लाख किस्म का है और स्थावरा, जो चलता-फिरता नहीं, वो भी लाख किस्म का है, इसी प्रकार चौरासी लाख योनि, उसमे मनुष्य जाती जो है चार लाख योनि। उसमे भी मनुष्य सब आपका शुद्ध नहीं है। उसमे म्लेच्छा, यवन, अदि अनेक मनुष्य है उसका भीतर जो थोड़ा ही मनुष्य जो वेद को मानते हैं। ये चैतन्य महाप्रभु का विचार है। तो वेद मानने वाला का भीतर भी जो वेद निषिद्ध पाप कार्य सब करते हैं, और जो वास्तविक वेद को मानते हैं उसका भीतर कर्म-काण्डीय ज़्यादा है। कर्म काण्ड का विचार है जो इस जन्म में भी शुद्ध कर लो और आगे जेक स्वर्गलोक आदि में जन्म होये। ये कर्म काण्डीय है। तो चैतन्य महाप्रभु कहते हैं की करोड़ों कर्मी का भीतर एक ज्ञानी श्रेष्ट है और करोड़ों ज्ञानी का भीतर एक मुक्त श्रेष्ट है और करोड़ों मुक्त का भीतर एक दुर्लभ कृष्ण भक्त। ये चैतन्य महाप्रभु का विचार। कृष्णा भक्त होना बहुत ही मुश्किल है क्यूंकि भगवान कृष्णा स्वयं ही बोलते हैं:
- मनुष्याणां सहस्रेषु
- कश्चिद् यतति सिद्धये
- यतातम अपि सिद्धानाम्
- कश्चिं माम् वेत्ति तत्वतः
तो ये सब शास्त्र का वाक्य है:
- मुक्तानाम अपि सिद्धानाम
- नारायण-परायणः
चैतन्य महाप्रभु जो कृपा किये हैं इतना दुर्लभ जो कृष्णा भक्ति है वो बहुत सरल और सहज उपाय में मिल सकता है इस कलियुग में। ये चैतन्य महाप्रभु का महा दान है। इसलिए चैतन्य महाप्रभु से जब रूप गोस्वामी प्रयाग तीर्थ में मिले थे उनका जो प्रार्थना, "नमो महा-वदान्याय कृष्ण-प्रेम-प्रदाय ते कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौर-त्विषे नमः"। रूप गोस्वामी उस समय बड़े भारी आदमी थे, नवाब हुसैन शा के शाशन में मिनिस्टर थे और सब छोड़ करके चैतन्य महाप्रभु का चरणाश्रय ले लिया। रूप सनातन दो भाई। क्यूंकि राजनैतिक, समझ लिया की चैतन्य महाप्रभु का नाम कितना बड़ा। इसलिए कहते हैं "नमो महावदन्याय"। महावदन्याय वोही है जो बहुत दान देने वाला हो। और चैतन्य महाप्रभु कहते हैं महावदन्याय, क्यों "कृष्णा प्रेम प्रदायते"। जो कृष्ण प्रेम मिलना, मने करोड़ों का भीतर भी होना मुश्किल है, वो कृष्ण प्रेम चैतन्य महाप्रभु अपना हाथ से सबको दे रहे हैं। इसलिए रूप गोस्वाइ कहते हैं "कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौर-त्विषे नमः"। आप स्वयं कृष्णा हैं और आप कृष्णा चैतन्य नाम लेकर के अवतरित हुए हैं। इसलिए आप महावदन्याय हैं। आप से बड़ा और कोई अवतार नहीं है। एहि, वास्तविक ये ही बात है। भागवत में आप लोग सभी जानते हैं की सुखदेव गोस्वामी जब काली युग की वर्णन करते हैं तो उस समय महाराज परीक्षित को बताया की महाराज काली युग का तो दोष इतनी है की समुद्र समान; "कलेर दोष-निधे राजन्न अस्ति ह्य एको महान् गुणः"। मगर इसमें एक महान गुण है, ये काली युग के लिए ही है विशेष करके क्यूंकि कलियुग का जो मनुष्य है वो अधम पतित है इसलिए भगवान कृपा करके उनको ऐसी रास्ता बताये हैं की बहुत सरल और सहज उपाय से भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। वो क्या चीज़ है "कीर्तनाद एव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत्"। केवल कृष्ण कीर्तन करके वो मुक्तसंगः हो जाते हैं। ये जो भौतिक जगत का त्रिगुण है उससे मुक्त हो करके परम धाम में चले जाते हैं। और चैतन्य महाप्रभु कहते हैं "परम विजयते श्री कृष्णा संकीर्तनम" ."चेतो-दर्पण-मार्जनम् भव-महा-दावाग्नि-निर्वापणं" ये "परम विजयते श्री कृष्णा संकीर्तनम"। चैतन्य महाप्रभु खुद कृष्ण कीर्तन करके सबको बताया की केवल मात्र कृष्ण कीर्तन दान से वो पहली बात है की चित्त दर्पण मार्जनम। चित्त दर्पण मार्जन होने से ही वो मुक्त हो जायेगा।
क्यूंकि मुक्ति का अर्थ क्या होता है? मुक्ति "मुक्तिर हित्वान्यथा-रूपम् स्वरूपेण व्यवस्थितः"। अभी जो हमारा रूप है, दुनिया से जो हमारा संपर्क है वो विपरीत है। मैं चाहता हूँ मैं भोक्ता, सब कोई चाहते हैं। ये भौतिक जगत में जो कोई है। ब्रह्मा से शुरू करके और वो जो मॉल का जो कीड़ा है वो सब कोई भोग करने को चाहता है "कृष्ण भुलिया जीव भोग-वांछा करे पसते माया तारे झापटिया धरे"। माया और कुछ नहीं है; जब कृष्ण को हमलोग भूल जाते हैं उसका नाम है माया। और फिर कृष्णा में जब प्रपत्ति होती है फिर माया छूट जाती है। "माम एव ये प्रपद्यन्ते मायाम एताम तरन्ति ते"। तो कृष्ण भक्त के लिए माया कोई कठिन बात नहीं है। माया जब कृष्णा का चरण में प्रपत्ति हो जाती है उस समय माया बहुत दूर भाग जाती है। उसके लिए माया कोई समस्या नहीं है। "बहुनाम जन्मनाम अन्ते" इसलिए भगवद-गीता में भगवान कहते हैं जो ज्ञान की परिसमाप्ति क्या है ये भगवान में प्रपत्ति। तो बहुत ज्ञानी जैसे चैतन्य महाप्रभु कहते हैं "कोटि ज्ञानी मध्ये एक होये मुक्त" तो ये जो मुक्त "मुक्तानां अपि सिद्धानां" जो मुक्त हो चुके हैं उसका भीतर अगर कोई-कोई कृष्ण के चरण में प्रपत्ति करता है तो उसी वक्त माया से मुक्ति हो जाती है।
- बहुनाम जन्मनाम अंते
- ज्ञानवान् माम् प्रपद्यते
- वासुदेवः सर्वम् इति
- स महात्मा सु-दुर्लभाः
- महात्मनस तु माम पार्थ
- दैवीं प्रकृतिं आश्रितः
- भजन्ति अनन्य-मनसो
ये महात्मा का लक्षण है। ऐकान्तिक भाव से केवल कृष्ण भजन और वो सबसे बड़ी योगी है। इसलिए भगवान कहते हैं:
- योगिनाम अपि सर्वेषाम्
- मद्-गतेनन्तर-आत्मना
- श्रद्धावान भजते यो माम्
- स मे युक्त-तमो मतः
तो योगी कहिये, ज्ञानी कहिये, कमी कहिये और भक्त तो है ही है। तो भक्त का उद्देश्य है भागवत सेवा, भगवान कृष्ण की सेवा। ये ही उसका मुक्ति का परिचय है "स्वरूपेण अवस्थिति"। स्वरुप है चैतन्य महाप्रभु जैसे बताते हैं "जीवेर स्वरुप होय नित्येर कृष्ण दास" ये उसका स्वरुप है। ये दास सब छोड़ करके जो भी हम अभिमान करेंगे वो सब माया और कुछ नहीं। माया छोड़ के और कुछ नहीं। इसलिए सब को ये उपदेश देना चाहिए चैतन्य महाप्रभु की ये ही वाणी है जो "पृथ्विते आछे यदि नगरादि ग्राम सर्वत्र प्रचार होइबे मोरा नाम"। तो वो हो रही है भगवान की कृपा से, चैतन्य महाप्रभु के आशीर्वाद से ये जो पाश्चात्य देश में, विशेष करके अमेरिका, इनको बताया जाता है की "कृष्णस तू भगवान स्वयं" और कृष्ण को मान ले उसी वकत। वो और कोई कॉम्पिटिटर खड़ा नहीं करते हैं की क्यों कृष्णा को ही भगवान माना जाये। जैसे हमारा भारत वर्ष में है। ये आज नहीं बहुत पुराना। इसलिए कृष्ण को फिर से आना पड़ा चैतन्य महाप्रभु का मूर्ति से। भगवान सबको बताया की "सर्व धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज"। बाकि माना नहीं की क्यों कृष्णा में क्यों प्रपत्ति करे। नहीं। कोई-कोई बड़े-बड़े विद्वान कहते हैं सोफिस्ट्री कृष्णा का बहुत भारी डिमांड। भगवान का ऐसा डिमांड होना चाहिए बाकि आदमी समझा नहीं, हो गया। इसलिए भगवान कृष्णा फिर कृष्ण चैतन्य नाम से किस प्रकार कृष्णा भक्ति करनी है उसको सिखाया "आपनी आचारी प्रभु जीवेर शिखाय"। तो हमलोग का कहने का मतलब है की वास्तविक दुनिया में ये जो अभी जो भाव चालू है की दिन भर परिश्रम करके केवल इन्द्रिय तर्पण करने के लिए सब आदमी दिन भर परिश्रम करते हैं। भगवान स्वयं भी भगवद-गीता में बताये हैं "न माम् दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः"। ये मूढ़ा का जो पर्याय है ये विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ये मूढ़ा बताये हैं जो लोग कर्मी हैं क्यूंकि दिन भर परिश्रम करते हैं और उसको लाभ क्या होता है थोड़ी से इन्द्रिय तरपान, बस। इसी बात को करोड़ों वर्ष पहले ऋषभदेव अपने पुत्र को बताये थे की बेटा ये जो शरीर है सूअर के जैसे नहीं होने चाहिए। कहते हैं विशेष करके "कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये" अत्यंत कष्ट करके केवल इन्द्रिय तरपान करने के लिए दिन रात परिश्रम करना ये सूअर का काम है बेटा, ऐसा न करो। तो हमारा देश में अभी तो इतना नहीं हुआ है परन्तु मैं प्रदेश में, पाश्चात्य देश में देखा दिन भर इसीलिए परिश्रम करते हैं थोड़ा स बस इन्दिर्य तरपान करने के लिए और उसका काम ही है शराब, वीमेन, वाइन, एंड मनी। बस औअर कुछ नहीं, और कुछ जानते ही नहीं और कुछ सिखाया ही नहीं जाता। इसलिए ये लोग सब परेशान हो गया। देख रहे हैं की हमारा पिताजी बहुत रूपया कमाया है बाकि और कोई शराब, औरत, इसी के पीछे है, और उसमे भी उसको सुख नहीं मिलता है, वो भी रात को सोने के समय उसको पिल लेके सोने पड़ता है, तब वो सो सकता है। इसलिए ये नौजवान पाश्चात्य देश में , खासकर अमेरिका में ये लोग बड़ा परेशान हो गया, हताश हो करके ये लोग का बीपी हो गया। बड़े-बड़े विद्वान ऐसा हो गया, बड़े-बड़े अच्छे घर का लड़का, मिलियनेयर घर लड़का सब छोड़ देता है, इसमें कुछ है नहीं। इसलिए समय पर उनको ये चीज़ मिला है ये चैतन्य महाप्रभु की वाणी "हरेर नाम हरेर नाम हरेर नामैव केवलं कलौ नास्त्य एव नास्त्य एव नास्त्य एव गतिर अन्यथा" सुन करके आज ऐसा बिजी है, उनको समझाया गया, उसको ग्रहण भी किया। इसलिए आज वो लोग आहिस्ते-आहिस्ते बहुत आगे बढ़ रहे हैं। इसलिए हम तो अभी एक डिवोटी इधर ही है, हमको बहुत उत्साहजनक पात्र मिलता है की यहाँ तीन-चार सेण्टर और खुल गया, ये ही लोग कर रहे हैं। और कहीं भी सेण्टर खोला जाता है वो लोग इतना आग्रह से ग्रहण कर रहे हैं, बहुत तैयार हैं इसको लेके। तो आप लोग से निवेदन है जो भारतवर्ष में इतना भरी कल्चर है कृष्णा कोनशएसनेस्स इसको हम छोड़ बैठे हैं, ये उचित नहीं है। और एक बात है भारतवर्ष का बड़े-बड़े मिनिस्टर लोग जब बहार में जाते हैं मांगने के लिए जाते हैं की हमको थोड़ा गेहूं दीजिये, हमको थोड़ा चावल दीजिये, हमको थोड़ा रूपया दीजिये, हमको सिपाही दीजिये, ये सब भीक मांगने जाते हैं। बाकि आपके पास ये संपत्ति है कृष्णा कोनशएसनेस्स। यदि आप लोग इसको देंगे जो लोग बहुत आभारी होंगे वो लोग कहते हैं की ऐसा सम्मान हमको कभी नहीं मिला। एक नहीं, हज़ारों इधर से जाना, हज़ारों प्रचारक जाना चाहिए, बहुत लेने के लिए तैयार हैं। हम तो खाली अमेरिका में थोड़ा घूमा है और थोड़ा यूरोप में भी घूमा है। तो न जाने कहाँ-कहाँ साउथ अमेरिका है, अफ्रीका है, कनाडा में हम थोड़ा घूम-घाम के आया है। तो अकेले जहाँ तक होये भगवान की कृपा से कुछ काम किया है। बाकि आपको ये संवाद देने के लिए यहाँ आया हूँ। इसका चाहिदा बहुत ही हैं। इधर से बड़े-बड़े भारतवर्ष में हमारा अनेक साधु हैं, सन्यासी हैं, वो जाते हैं कभी-कभी, वो जा करके और कुछ योग, जिम्नास्टिक सीखा करके कुछ पैसा-वैसा ले करके आ जाते हैं। वास्तविक जो वास्तु है वो भारतवर्ष में समझ लीजिये अभी तक ये पहली बार जो "कृष्णस तू भगवान स्वयं"। वो कहते थे भगवान मर गया और भगवान सभी हैं रास्ता-रास्ता में घूम रहे हैं, दरिद्र नारायण सब घूम रहे हैं और कोई कहते हैं भगवान नहीं है, भगवान निराकार है, सभी भगवान को छोड़ने से मतलब। तो इसमें कभी सुखी नहीं हो सकेगा। सुख का जो प्रोग्राम है भगवान खुद बताते हैं;
- भोक्तारं यज्ञ-तपसाम्
- सर्व-लोक-महेश्वरम्
- सुहृदं सर्व-भूतानाम
- ज्ञात्वा माम् शान्तिं ऋच्छति
बड़े-बड़े सब नेता लोग सुह्रद होने को चाहते हैं बाकि ये नहीं बताते हैं की सुह्रद तो भगवान ही हैं। उससे संपर्क बना तब सुखी होंगे। ये बात कोई नहीं मानता है बाकि कुछ दिन तक हमलोग का ये ही बताना है जो भगवान का चरण में आत्मा समर्पण करो और भगवान की भक्ति वो भी बहुत सरल है। केवल हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। ऐसे कोई कठिन बात नहीं है। सब कोई कर सकते हैं और कर रहे हैं। बाकि जो अपराध शून्य हो करके जो ये लोग करते हैं इसलिए इनका काम बहुत जल्दी-जल्दी बढ़ रही है। इसलिए आज कुश्ती का आप लोग सब है। आप लोग की संस्था भी बहुत बड़ी है। मैं चाहता हूँ की लीडरशिप प्रचार तैयार किया जाये और सारा दुनिया में भेजा जाये। उसमे जो भारत का मुख उज्जवल हो तो सब लोग मान लेंगे की भारतवर्ष से हम लोग को कुछ मिला है। अभी हम लोग कहीं भी जाते हैं तो वो लोग कहते हैं की भारतवर्ष बड़ा दरिद्र है। ये ही उधर आडवर्टाइज़मेंट है की भारतीय जो है वो बहुत गरीब है। बाकि वास्तविक है की हमारा पास जो संपत्ति है वो जो बड़े-से-बड़े धनि है उसको भी कुछ दे सकता है, ऐसी सम्पाती है। ये संपत्ति वितरण करने के लिए सबको प्रयत्न करनी चाहिए ये ही आप से हमारा निवेदन है। थैंक यू वैरी मच। हरे कृष्णा। गेस्ट: मैं अपने सौभाग्य से वंचित नहीं रहना चाहता था। इसलिए मैं नीचे आ गया। वास्तव में ही ये महँ कार्य हो रहा है। सारा जगत इस समय अशांति के महान दावानल से विदग्ध हो रहा है। उसको बचाने के लिए, उसमे यदि किसी प्रकार से भी, किसी रूप में भी शांति की आशा है तो वो केवल और केवल इसी बात में है की महाराज ने गीता से श्लोक सुनाया " :सुहृदं सर्व-भूतानाम ज्ञात्वा माम् शान्तिं ऋच्छति"। शांति चाहिए तो श्री कृष्णा के शरणार्पण होना चाहिए। इसके सिवा धन में, ऐश्वर्य में, घर में, साम्रज्य में कहीं पर शांति आज तक किसी को मिली नहीं और मिल सकती नहीं जो की है नहीं।
गीता का अर्थ कहते हैं भगवान;
- ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते ।
- आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध: ॥
जितने भी संस्पर्श भोग हैं वो सब आद्यन्तवन्त:वाले हैं और दु:खयोनय, जिससे दुखों का उदय होता है, उत्पत्ति होती है, उनमे सुखों की आशा करना मूर्खता है। तो आज का जगत और उसी जगत के पीछे हमारा भारतवर्ष इसी मूर्खता की ओर जा रहा है। शान्ति चाहता है, सुख चाहता है पर चाहता है भोगों से। इसीलिए सारा प्रयास; आज का विज्ञानं बहुत उन्नत है पर विज्ञानं भी भोगोन्मुखी है, भगवदुन्मुखी नहीं है। तो सबसे बड़ी चीज़ इस समय के लिए एहि है, हमेशा के लिए श्री कृष्ण के शरणार्पण होना। वो श्री कृष्ण आपकी वास्तु है। और सबसे बड़े सिख की चीज़ ये है की उस वास्तु का विश्लेषण महाराज कर रहे हैं। एक भक्त ने कहा की वहां सब कुछ है बस श्री कृष्ण का आभाव है। अगर श्री कृष्ण मिल जाये तो हमारे यहाँ; वास्तव में श्री कृष्ण सबके हैं, किसी एक के नहीं हैं।
- माम् हि पार्थ व्यापाश्रित्य
- ये 'पि स्युः पापा-योनयः
- स्त्रीयो वैश्य तथा शूद्र
- ते 'पि यान्ति पराम गतिम्
सब के हितेश हैं और ये बात बहुत ठीक कही। इसमें धर्म परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। आत्मा का धर्म एहि है श्री कृष्ण के शरणार्पण होना। स्वाभाविक। तो श्री कृष्ण का जो कीर्तन महाराज कर रहे हैं वो नाम प्रचार के द्वारा और दो बात की कमी रहती थी। एक तो भगवान के प्रेम का, भक्ति का प्राधान्य नहीं रखा जाता था और दूसरी अपराध शून्य होने की बात नहीं कही जाती थी। मुझे तो सबसे अधिक प्रसन्नता हुई आपके नियमों को देखकर, आपकी आचार पद्धत्ति को देखकर। जो किसी भारतवर्ष के चीज़ का प्रचार करने के लिए नहीं। जो मानव मात्र के लिए कल्याण की वस्तु है उस कल्याण की वस्तु का मानव मात्र का करा देना, उसको उसका अधिकारी बना देना, उसे दे देना, उसको प्राप्त करा देना, ये सबसे बड़ी सेवा है। ये सेवा श्री कृष्ण की सेवा है। ये सेवा महाराज कर रहे हैं और श्री कृष्ण की कृपा से कर रहे हैं। चैतन्य महाप्रभु ने ही इनके द्वारा ये महान कार्य करवाना चाहा। उन्होंने कहा था की सरे विश्व में मेरे नाम का प्रव्हार होगा, ५०० वर्ष पूर्व कहा था। तो संभव है की ये ही उसका सूत्रपात हो। इसी के द्वारा प्रचार शुरू हो गया हो। और मैं इन भक्तों को देखता हूँ; अभी मैं देख रहा था, नामोच्चारण हो रहा था। इनके दिनचर्य को मैं पढ़ा, देखा तो नहीं तो मुझे बड़ा सुख मिलता है। मैं तो बल्कि उनका ये कहना चाहता हूँ की भारतवर्ष के लोगों को इनसे सीखना चाहिए। हमलोग कहते हैं की ये करते हैं तो जो करने वाले आदर्श होते हैं वो कहने वाले आदर्श नहीं होते। हमारे पास वस्तु है वो हमारे ग्रंथों में आबद्ध है, वो हमारे सिद्धांत में आबद्ध है। हमारे जीवन में आज उसका अभाव अवस्था होता जा रहा है। यद्यपि नहीं है अभी। अगर अभाव अवस्था होता तो ये जाते कहाँ से, ये भी तो यहीं के हैं। तो हैं यहाँ पर, अभाव नहीं है। न जाने कितने महात्मा और पड़े होंगे। लेकिन तमाम जगत इसका भूखा है। मेरे पास भी बहुत से यूरोपियन लोगों से संपर्क होता है। वो चाहते हैं कहीं पर भी हमें कुछ मिल जाये, शांति मिल जाए। वो अपनी सभ्यता से उक्ता गए हैं। अपनी संस्कृति से ऊब गए हैं। और अपने ऐश्वर्य से, धन-दौलत से उनको अब परेशानी हो गयी है, इससे मुक्त हों। रास्ता नहीं दिखता। और इसमें हज़ारों आदमी, नव युवक, नव युवतियां जो आ रहीं हैं उनका कहानी एहि है। तो जो चीज़ दिख रही है सामने। मैंने कई लेख देखे हैं जो आये थे महारज के भेजे हुए उनमे कई वहां के लोगों के लिखे हुए बड़े सुन्दर। उनसे मालूम हुआ के वे बड़े आश्वासन को प्राप्त कर रहे हैं इसके द्वारा और उनका केवल कोई दिखावे के चीज़ नहीं है बिलकुल। जो कुछ कर रहे हैं मन से कर रहे हैं, अंतर्मन से कर रहे हैं। तो ये बड़ा सुन्दर कार्य है। इसमें सबको सहयोग देना चाहिए जहाँ तक हो सके, जितना हो सके, ये तो श्री कृष्ण की सेवा है प्रत्यक्ष। और कल्याण में कुछ विषय नहीं निकला है एक परिचय पुस्तिका और यहाँ से निकलने वाली है। उसका संकलन हो गया है प्रायः। उसमे कुछ चित्र आदि दे करके उसको निकाल देना चाहते हैं जिससे और भी ज़्यादा प्रचार हो जाये। और प्रचार से बड़े श्री कृष्ण, उनका अपना काम वो करेंगे। हमलोग तो निमित्त मात्र हैं। उनका अपना काम तो वो कर रहे हैं, तो वोही अभी कर रहे हैं। तो बड़ी कृपा आपने की, दर्शन दिए यहाँ पर, यहाँ भक्तों के दर्शन हुए, नाम संकीर्तन सुना हुनलोग के और आशीर्वाद दें की श्री कृष्ण में मती बानी रहे। और कुछ कहना सुनना है नहीं। श्री कृष्ण में मति बानी रहे। ये सबसे बड़ी चीज़ है। मुझे बोलने में कुछ थकावट मालूम होती है इसलिए मैं बोल नहीं सकता। आज तो कई महीनो के बाद।
(कन्वर्सेशन विथ प्रभुपाद नॉट क्लियर)
गेस्ट:बंगाल के, नवद्वीप के प्रायः हैं लोग। यहीं आठों प्रहर कीर्तन करते हैं। गौड़ीय हैं। हमारे यहाँ से चैतन्य चरितामृत भी निकली है हिंदी में। चैतन्य महाप्रभु की कृपा से प्रायः ये ६ गोस्वामी पाद ने जो भजन गगये हैं उन्ही के आधार पर हमलोग पुस्तक लिखते-लिखाते हैं।
प्रभुपाद: नरोत्तम दास ठाकुर गीत गए हैं
- रूप रघुनाता पादे होइबे आकूती
- कबे हम बुझाबो से जुगल पिरीति
भगवान राधा-कृष्णा का प्रणय जो है वो गोस्वामी लोग का जो उपदेश है वो उसके भीतर अर्थ हमको समझ में आता है। गेस्ट:वैष्णव कृपा से ही होता है वर्ना केवल विद्या से ये उपलब्ध नहीं हो सकता है। (नॉट क्लियर) प्रभुपाद: भोग आरती।
(विराम) (समाप्त)।
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