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710211 - Lecture Hindi - Gorakhpur

His Divine Grace
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada



710211L2-GORAKHPUR - February 11, 1971 - 39:19 Minutes



Devotee: (introducing recording) . . . (indistinct) . . . kīrtana evening the 11th, February 1971. The last lectures . . . (indistinct) . . . Śrī Kṛṣṇa-niketana.

(Gurvaṣṭakam) (break)

(01:16)

Prabhupāda: (Hindi)

(break) (end).

HINDI TRANSLATION

भक्त: (रिकॉर्डिंग प्रस्तुत करते हुए) . . . (अस्पष्ट) . . . 11 फ़रवरी 1971 की संध्या कीर्तन। अंतिम व्याख्यान . . . (अस्पष्ट) . . . श्री कृष्ण-निकेतन।

(गुरुवाष्टकम) (विराम)

हमलोग जो इधर आते हैं अनेक जीव अनंत जीव, जिसका कोई संख्या नहीं है तो "अनन्ताय कल्पते"

केशाग्र-शत-भागस्य
शताधा कल्पितस्य च
भागो जीवः स विग्नेयः
स चानन्त्यायः कल्पते

जीवात्मा जो है उसका माप भी है शास्त्र में कितना बड़ा, कितना लंबा-चौड़ा, निराकार नहीं। ये लोग कहते हैं निराकार उनको ज्ञान कम है, जानते ही नहीं। तो जीवात्मा एक वस्तु है। भगवान एक वस्तु है "नित्यो नित्यानां चेतनश्च चेतनानां"। भगवान प्रधान चित वस्तु और जीवात्मा भी उनका अंश स्वरुप।

ममैवांशो जीव-लोके
जीव-भूतः सनातनः

तो जीवात्मा का स्वरुप है, शास्त्र में वर्णन है। जो एक केश का अग्र भाग १०,००० विभाजन करके एक भाग होता है, वो जीव का स्वरुप है। हम ोग तो कह देते हैं दी पॉइंट हास् नो लेंग्थ, नो ब्रेड्थ और केशाग्र भाग जो है वो तो बहुत ही शूद्र है। इस्क्को दस हज़ार भाग करना भी मुश्किल है। ये सब हमलोग कर नहीं सकते, देख नहीं सकते, इसलिए कहते हैं निराकार। कोई-कोई कहते हैं की भौतिक चीज़ का संयोग से जीवन लक्षण दिखाई पड़ता है। ये बात नहीं है। जीवात्मा एक अलग चीज़ है और उनको बहुतिक शरीर जो है, जैसे हमलोग का कुरता है, शर्ट है। इसी प्रकार सूक्ष्म और जड़ शरीर से हमलोग बद्ध हैं। भगवान भगवद-गीता में भी एहि बात बताते हैं;

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥

ये जीवात्मा इसी तरह से ये सहरीर में बद्ध हो गया है भौतिक जगत में। तो इसका क्या कारण है? "कृष्णा भूलिया जीव भोग वांछा करे" जब जीवात्मा भगवान को भूल जाता है, ये भगवान से कॉम्पीटीशन करने को चाहता है। जैसे अनेक मुर्ख है कहते हैं शूम स्वयं भगवान हैं, भगवान से कुछ कॉम्पीटीशन दिखाओ तो। नहीं मेडिटेशन करके भगवान को चाहते हैं। तो कहने का मतलब है ये सब अज्ञान का स्वरुप है। अज्ञान अनेक प्रकार के होते हैं और आदि अज्ञान जो है वोही है की मैं भगवान हूँ। ये माया का । जब सब बाद में हो जाता है टब आदमी सोचता है हम भगवान हैं। वास्तविक ये बात नहीं है। इसलिए शास्त्र कहते हैं "अविशुद्ध बुद्धाय"

ये 'नये' रविंदाक्ष विमुक्त-मानिनस
त्वय अस्त-भावद अविशुद्ध-बुद्धयः

ऐसे-ऐसे जो सब आदमी अपने को मुक्त मानते हैं वो शास्त्र सिद्धांत अनुसार उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं, अविशुद्ध बुद्धि;

ये 'नये' रविंदाक्ष विमुक्त-मानिनस
त्वय अस्त-भावद अविशुद्ध-बुद्धयः

क्यूंकि भगवान को समझाने वाला उनको मिला नहीं। भगवान् की चरण की सेवा उनको मालूम नहीं। इसलिए उसको कहा जाता है अविशुद्ध-बुद्धयः। बुद्धि शुद्धि नहीं है। "अरुह्य कृष्णेण परम पदं ततः पतन्ति अधः" ये जो सब अनेक साधन करके, अनेक वैराग्य करके, अनेक त्याग करके परम पद तक पहुँच जाता है परन्तु पतन्ति अधः फिर गिर जाता है। "पतन्ति अधः 'नादृत-युष्मद-अंघ्रय:"। क्यूंकि भगवान का चरण को अनादर किया । ये शास्त्र का सिद्धांत है। इसलिए भगवान स्वयं आ करके बता रहे हैं भगवद-गीता में "सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम एकं शरणं व्रज"। वो जितना जीव है संसार में अनेक योनि में ब्रह्मण कर रहा है, अनेक प्रकार कष्ट उठा रहे हैं और वो कष्ट क्यों उठा रहे हैं? केवल आहार, निद्रा, भय, मैथुनम च। आहार करने के लिए और सोने के लिए अच्छा मकान बनाते हैं जिसका जैसा ताकत है। वो जो पक्षी है वो भी कुछ अपना मकान बना लेते हैं। और जो बड़े-बड़े साइंटिस्ट हैं वो बड़े-बड़े स्काईस्क्रेपर बनाते हैं। बाकि है चीज़ वोही। जो सोने के लिए एक जगह। ये सब सारा दुनिया में चल रहा है, पूरा ब्रह्माण्ड में चल रहा है आहार, निद्रा, भय, मैथुन के लिए। बाकि वो जो अपना स्वरुप है वो भूल गया। वो जो स्वरुप है नित्य कृष्ण दास वो भूल गया। भूल करके अपना-अपना ताकत के अनुसार कर्म का चक्र बनाते हैं और उसमे फँस जाते हैं। नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं "सत्संग छाड़ी' कैनु असते विलास ते-कारणे लागिलो ये कर्म-बंध-फांस"। सत्संग छोड़ दिया। भगवान का संग छोड़ दिया और असत जो तात्कालिक माया वस्तु है उसमे ज्यादा ध्यान लगा दिया। इसलिए हम कर्म बंधन में फँस जाते हैं। "भूत्वा भूत्वा प्रलीयते" कर्म बंधन में फँस जाने से केवल एक शरीर धारण करना और कुछ दिन चालू करना फिर अपना कर्म के अनुसार और एक शरीर को धारण करना, इसी प्रकार चल रहा है। ये चैतन्य महाप्रभु का कहना है की इसी प्रकार जीव सारा ब्रह्माण्ड में ब्रह्मण करें। कभी ब्रह्मा भी हो जाता है और कभी मैला का कीड़ा भी हो जाता है अपना कर्म का अनुसार। एहि ब्रह्मण करते-करते यदि उनका कुछ सुकृति हुई तो "गुरु कृष्णा क्रपय पाए भक्ति लता बीज" तब उसको भक्ति लता बीज लाभ होता है। और वो भक्ति लता बीज को प्राप्त करने से और यदि उसको अच्छी तरह से रोपण करके, पानी डाल करके बीज को वृक्ष में परिवर्तन करे लता से तो आगे जाके भागवत प्रेम फल रूप वो खा सकेंगे और उसको जीवन सफल हो जायेगा।, जीवन सार्थक हो जायेगा। ये कृष्णा कोशिएसनेस्स मूवमेंट जो हमलोग चला रहे हैं और कुछ नहीं जो जीव का जो भगवान से संपर्क है, प्रेम संपर्क है क्यूंकि संपर्क बहुत इंटिमेट है। भगवान कहते हैं हमारा पुत्र है "अहम् बीज प्रद पिताः" ये पिता के पुत्र से संपर्क बहुत ही अच्छी होती है। इसी प्रकार हमारा भगवान से संपर्क है, केवल हमलोग भूल गए हैं, और कुछ नहीं। तो वो जो भूल गए हैं उसको जगाने के लये ये कलियुग में ये ही एक मात्र महामंत्र है जैसा कोयो आदमी सांप अगर उसको काट दिया है वो जैसा बेहोश हो जाता है और उसको मन्त्र से फिर जाके उसको जाग्रत किया जाता है। उसी प्रकार हमलोग माया देवी का आश्रय में बिलकुल बेहोश हो गया है। ज्ञान शुन्य हो गया है। अज्ञान और फूल हो गया। चेतो दर्पण, ये चेतनता जो है हमारा वो आवरित हो गया। वो ढकना जो है उसको उठाने के लिए कलियुग में एहि एक साधन है;

हरेर नाम हरेर नाम
हरेर नामैव केवलम्
कलौ नास्त्य एव नास्त्य एव
नास्त्य एव गतिर अन्यथा

कलियुग में और कोई साधन सफल नहीं हो सकेगा। है, अनेक साधन का नियम है कर्म योग, ज्ञान योग इत्यादि पर ये सब कुछ काम में नहीं आता है। कलियुग में जैसे शास्त्र में विधि है;

कीर्तनाद एव कृष्णस्य
मुक्तसंगः परं व्रजेत्

केवल मात्र ये हरे कृष्णा मन्त्र कीर्तन करके आदमी मुक्तसंगः हो जाता है, बिलकुल मुक्त हो जाता है और अपना स्वरुप को प्राप्त हो जाता है। मुक्ति का अर्थ होता है स्वरुप को ज्ञान लाभ। अहम् ब्रह्मास्मि, ये हमारा पहली ज्ञान है की मैं भ्रम वस्तु है और आगे और वर्णन चाहिए तो वो जो;

ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भ‍‍क्तिं लभते पराम् ॥

तो आगे बढ़ने के पश्चात वो भगवद भक्ति, भक्ति योग वो जो है उससे संपर्क होता है और भक्ति योग का साधन करने से मुक्त हो जाता है और मुक्त होने के बाद कृष्ण प्रेम लाभ होता है और उसमे उसका जीवन सफल होता है। और भागवत में बताते हैं;

स वै पुंसाम परो धर्मो
यतो भक्तिर अधोक्षजे

आप चाहे हिन्दू हो चाहे मुसलमान होये चाहे क्रिस्चियन होये जो आपको पसंद है उस दह्र्म में रहिये। बाकि देखना चाहिए की आपको भागवत प्रेम बढ़ रही है न कम हो रही है। यदि भागवत प्रेम आप की ठीक है, भगवान से संपर्क आपकी ठीक है तो कोई धर्म आप याजन कर रहे हैं वो ठीक है। और नहीं तो "श्रम एव ही केवलं", केवल परिश्रम,उसमे कुछ लाभ नहीं है। तो ये जो हमारा कृष्णा कॉन्शेउसनेस्स मूवमेंट है सबको एहि सिखाते हैं की भागवत प्रेम "प्रेमा पुमार्तो महान"। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये पुमार्थ नहीं है, चतुर्थ वर्ग, है बाकि आपको आगे बढ़ा देते हैं, ये असल जो है पंचम पुरुषार्थ है, वो भागवत प्रेम। चतुर वर्ग ठीक है वो तो दुनिया से छुट्टी हो सकती है बाकि जब तक भागवत प्रेम लाभ न होये फिर इधर ही घूम के आने पड़ेगा। जैसा पहले आपलोग को बताया है "अरुह्य कृष्णेण परम पदं ततः पतन्ति अधः" फिर गिर जायेंगे। ऐसे बहुत से सन्यास लिया। "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" करके छोड़ दिया जगत को तो फिर ये जगत में आ करके वो जो फिलांथ्रोपिक वर्क है, वेलफेयर वर्क है, उसमे फिर लग जाते हैं। ये जगत मिथ्या ही हुआ है की जगत में ये जो फिलांथ्रोपिक वर्क है, वेलफेयर वर्क है इसमें कोई मतलब नहीं है। जब ब्रह्म सत्य उपलब्ध नहीं होने से ये मिथ्या जगत में ही फँस जाते हैं। इसलिए भगवान कहते हैं की जितने-जितने आपलोग धरम बनाये हैं कर्म, ज्ञान, योग आदि सब छोड़ करके केवल हमारा शरण में शरणागत हो जाइये। "सर्व धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज" और भगवान खुद अपना हाथ में आपका चार्ज लेते हैं :अहम् त्व सर्व पापेभ्यो मोकिष्यामि मा शुचः" तो ये भागवत भक्ति प्रचार करने के लिए संसथान है और हमलोग साडी दुनिया में कर रहे हैं और सब आदमी आग्रह से ले रहे हैं और आप लोग से निवेदन है की क्यूंकि ये तो भारत की ही संपत्ति है आप लोग भी इसको ठीक-ठीक से लीजिये और अपना जीवन को सफल कीजिये। हम लोग भी जहाँ तक हो सके सेवा करने के लिए इधर हैं। गेस्ट: (नॉट क्लियर) प्रभुपाद: राम का नाम तो हमलोग भी जपते हैं। गेस्ट:(नॉट क्लियर) प्रभुपाद: वो सब ठीक है। सीतारामसीताराम बोले तो ठीक है। बाकि अपराध शून्य होके बोलना चाहिए। गेस्ट: (नॉट क्लियर) प्रभुपाद: इसमें सीताराम जपिये। "नामनाम अकारि बहुधा निज-सर्व-शक्ति" भगवान के नाम अनेक है राम है, कृष्ण है, गोविन्द है मधुसूदन है, विष्णु है। गेस्ट १: (नॉट क्लियर) गेस्ट २: (नॉट क्लियर) प्रभुपाद: नाम और नामी एक ही वस्तु है, "अभिनत्व नाम नामिनो" भगवान राम और राम के नाम ये एक ही वस्तु है। भगवान कृष्णा और कृष्णा एक ही वस्तु है, अब्सोल्युट ट्रुथ। तो जब आप भगवान का नाम शुद्ध, अपराध शून्य नाम जप करेंगे तो समझ लीजिये की नाम रूप से भगवान आपके साथ में ही है। आपके जिह्वा में भगवान नाच रहे हैं। इस प्रकार सब समय आपका भगवान का संग होये तो आप तो मुक्त हो ही जायेंगे। जैसे आग के साथ रहने से गरम हो जाता है फिर आगे जेक आग ही हो जाता है। इसी प्रकार जैसे उधारण स्वररूप एक लोहा को आग में दीजिये गरम होता है और गरम होते-होते फिर जब लाल हो जाता है वो आग ही है। तो भगवान का नाम यदि आप शुद्ध चित से करेंगे तो भगवान का संग होने का कारण आप पवित्र हो जायेंगे और पवित्र हो करके "मुक्त संग परम व्रजेत" "कीर्तनाद एव कृष्णस्य मुक्त संग परम व्रजेत" ये संग जो है, ये त्रिगुण का जो संग होता है उसमे हम लोग फँस जाते हैं, माया और जब भगवान का संग करेंगे तो ये जैसा सूर्य का सामने आने से अंधकार का कोई संपर्क नहीं रहता। अब अंधकार में आप बैठे रहिएगा तो फिर तो आपको माया से छुट्टी नहीं है, मुक्ति नहीं है। आप थोड़ा सूर्य का प्रकाश में आइये तो अंधकार अपने आप चला जायगा। "मायाम ये ताम तरन्ति ते"

माम् एव ये प्रपद्यन्ते
मायाम एताम् तरन्ति ते

तो ये सहज उपाय सब समय भगवान से और आग से बिलकुल आस-पास रहना कलियुग में ये सरल उपाय है की सब समय, चौबीस घंटा

हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे रामा हरे रामा रामा रामा हरे हरे

बहुत सरल है, इसमें आपको कोई नुक्सान नहीं है, लाभ होगी। एक दफा देख लीजिये। इसमें क्या मुश्किल है? नुक्सान तो कुछ है नहीं। लाभ बहुत है। इसको देखिये, प्रमाण है, ये चार के पहले हमलोग कहते हैं म्लेच्छा, यवन, दुराचार, पापी और जो कुछ हम लोग को कहना चाहिए, अब ये बाकि भगवान का नाम ,भागवत प्रेम में नाचते हैं। ये सब कोई कर सकते हैं। इसमें क्या मुश्किल। गेस्ट: (नॉट क्लियर) प्रभुपाद: भगवान आपको कुछ कराते नहीं हैं। आप करने को चाहते हैं भगवान सुविधा देते हैं। आप यदि चोरी करने को चाहते हैं तो भगवान अच्छी तरह से आपको बुद्धि देंगे खूब अच्छी तरह से चोरी कीजिये। आप फिर फँस जायेंगे। एहि बात है। भगवान कृपामय हैं। आप चोर होने को चाहते हैं तो अच्छी तरह से पक्का चोर आपको बना देंगे। और अगर आप साधु होने को चाहते हैं तो भगवान आपको पक्का साधु भी बना देंगे। गेस्ट: (नॉट क्लियर) प्रभुपाद: नहीं नहीं पहले इस्क्को बात को समझ लीजिये। भगवान कुछ नही करते हैं। आप जैसे चाहते हैं वैसे करा देते है। भगवान का कोई रिस्पांसिबिलिटी है नहीं। "ये यथा माम प्रपद्यन्ते" आप चोर होने को चाहते हैं तो भगवान कृपा करके पक्का चोर आपको बना देंगे। और साधु बनने को चाहते हैं तो पक्का साधु भी बना देंगे। चाहते नहीं। आप क्यों इधर आ रहे हैं? और सब क्यों नहीं आये? ये इंडिपेंडेंस आपके पास है। और बैठे हैं, आप इधर से चले जा सकते हैं। ये थोड़ा सा इंडिपेंडेंस क्यूंकि आप भगवान का अंश स्वरुप हैं। भगवान पूर्ण स्वतंत्र हैं और भगवान का अंश होना का कारन आप का भी थोड़ा बहुत स्वतंत्रता है। वो स्वतंत्रता जब आप मिसयूज करेंगे तब आपकी अवस्था अच्छी नहीं होगी और जब स्वतंत्रता ठीक-ठीक व्यवहार करेंगे तो आप का अवस्था अच्छा होगा। इसलिए भगवान ये स्वतंत्रता करके तुम फँस गया है। इसलिए और सब धर्म छोड़ दो। जो चोर, ये सब छोड़ दो केवल हमारा शरण में शरणागत जो जाओ। तुमको चोर होना भी नहीं है और साधु भी होना नहीं है। दुइ प्रकार का धर्म चलता है;एक तो चोर होने का धर्म चलता है और एक साधु होने का धर्म चलता है। तो भगवान बोलता है की सब छोड़ दो। चोर भी न हो औअर साधु भी न हो। हमारा भक्त बन जाओ। इसमें तुम्हारा भला है। हम जैसे कहते हैं वैसा करो। अर्जुन ने एहि किया था। अर्जुन सोचा था की मैं लड़ाई नहीं करूंगा, सब अपना आदमी है, इसको मारने से हमारा पाप होगा, ये सब विद्वा हो जायेंगे, ये सब अकेले हो जायेंगे, बहुत कुछ सोचा था। और भगवान उनको भगवद-गीता समझाये और समझ करके एहि बात बताया की "सर्व धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज"। तो अर्जुन उसको स्वीकार कर लिया। अर्जुन बोलै ठीक है। हमारा ये सब जो विचार है ये छोड़ दिया। आप हमे लड़ाई करने को चाहते हैं, मैं करूंगा "करिष्ये वचनं तव"। इतना करने से ही आपका जीवन सफल हो जायेगा। आपका स्वतंत्रता छोड़ दीजिये। भगवान का शरण में शरणागति हो जाइये तभी आपका जीवन सफल हो जायेगा। जब तक आप स्वतंत्रता में रहिएगा कभी चोर बनना पड़ेगा, कभी साधु बनना पड़ेगा, कभी गरीब बनना पड़ेगा, कभी धनि बनना पड़ेगा। इसी प्रकार, अनेक प्रकार ऊपर नीचे एहि चलता है। इसलिए आदमी कभी स्वर्ग में भी जाता है, कभी नर्क में भी जाता है। वो स्वतंत्र है और भगवान उसको सुविधा देते हैं। तो इसीलिए भगवान कहते हैं की ये सब छोड़ दो, तुम्हारा स्वतंत्रता छोड़ दो। "जीवेर स्वरूप होय नित्य कृष्ण दास"। तुम्हारा जो स्वरूप वो भगवान का दास। तो दास बन जाओ, केवल भगवान का हुक्म सुनो, बस तम्हारा काम हो जायेगा। अर्जुन एहि किया, और कुछ नहीं किया। गेस्ट: (नॉट क्लियर) प्रभुपाद: बस, कम्पलीट सरेंडर। गेस्ट: तो होते-होते ये स्थिति हो जाती है की कुछ भी करने की इच्छा नहीं होती है। इतना बेचैन होने लगते हैं की उन्हें देखने के सिवाय, उन्हें सोचने के सिवाय कुछ करने की इच्छा नहीं होती और है की और काम बंद हो जाता है। तो उस श्थिति के लिए कैसे, क्या , आपका प्रभुपाद: ये स्तिथि जो है न असल में आत्मा समर्पण। उसमे जैसा अर्जुन आत्मा समर्पण कर दिया और बोला की " "करिष्ये वचनं तव"। अर्जुन उनका जो स्थिति है वो कुछ चेंज नहीं हुआ। वो पहले भी सिपाही थे और भगवद-गीता समझने के बाद भी सिपाही रहा। तो स्थिति तो कुछ चेंज नहीं हुआ। खाली उसका जो कोनशएसनेस्स था वो चेंज हो गया। वो समझ गया की हम भगवद दास हैं। स्थिति चेंज करने का कोई ज़रुरत नहीं है। केवल ये स्तिथि को चेंज करना है की अभी हमलोग समझते हैं की मैं भोक्ता हूँ, मैं मालिक हूँ, मैं कर्ता हूँ। इसी प्रकार ये जो हमारा मेंटालिटी है उसको खाली चेंज करना है।

प्रकृतेः क्रियमाणानि
गुणैः कर्माणि सर्वशः
अहंकार-विमूढ़ात्मा
कर्ताहं इति मन्यते

ये जैसा ने बताया है भगवान कहते हैं की भगवान की जो शक्ति है वो प्रकृति जैसा आप चाहते हैं। ये बात है आप जैसे चाहते हैं उसी प्रकार करा जा सकता है। तो स्तिथि खाली ये ही चेंज करना चाहिए जो अब मैं अपनी ख़ुशी से कुछ काम नहीं करूंगा। जैसा भगवान बताते हैं वैसा करूंगा। बस एहि स्तिथि चेंज, और कुछ नहीं। "स्थाने स्थितः श्रुति-गतां तनु-वां-मनोभिर" अपना स्थान में स्तिथ रहिये। और भगवान जैसे बताते हैं वैसा काम कीजिये तभी आपको सुख मिलेगा। और ज्ञान पूरी होइ चाहिए की भगवान ही एक मात्र भोक्ता है, भगवान एक मात्र मालिक है, भगवान एक मात्र मित्र है।

भोक्तारं यज्ञतपसां
सर्वलोकमहेश्वरम्
सुहृदं सर्वभूतानां
ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति

ये शांति का मन्त्र। "अहैतुकी अप्रतिहता ये आत्मा संप्रसीदति"। ये ाहितुकी भक्ति, भगवान का शरण में सम्पूर्ण निर्भर ये ही होने से आपको शांति मिलेगी और सब । ये हमारा भर है, हमारा संपत्ति है, बहुत कुछ "अहम् ममेति"। तो भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं "मानस देहो गेहो जो किछु मोर अर्पिलु तुअ पादेय नन्द किशोर"। जो कुछ हमारा पास है; सब के पास कुछ न कुछ है। तो वो भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं " थिस iअर्पिलु तुअ पादे नन्द किशोर, मारो भी राखो भी जो इच्छा तुहार नित्य दास प्रति तुअ अधिकार" अब आप मार डालिये या जीवित रखिये जैसी आपकी इच्छा कीजिये, ये आपका अधिकार है। थिस इस सरेंडर। तो भगवान क्या मार देगा? भगवान कहते हैं "कौन्तेय प्रतिजानीहि न में भक्त्या प्रणश्यति"। ये शरणगति जो है ये होने से ही जीवन सफल हो जायेगा। फिर आपका कोई मुश्किल नहीं है। भगवान आपका रक्षा करेंगे, आपको खाने के लिए, सब के लिए। अब देखिये भगवान का शरण में समर्पण करके आपको सब प्रोब्लेम्स मिट जाता है तो उसको क्यों आप डीनए करते हैं। क्या कारण है? बोलिये। ये हमारा प्रश्न है आप लोगों से। गेस्ट: समर्पण का जो विचार वो मनसा, वाचा, कर्मणा नहीं हो पाता। वाकया रूप तो हमलोग कर देते हैं लेकिन वास्तविक रूप से उसको नहीं कर पते हैं। और जब नहीं कर पाते हैं तो इसलिए वो सब कष्टों से प्रभुपाद: कष्ट तो होगा ही। गेस्ट: थोड़ा किया फिर सोचते हैं अहम् भाव आ जाता है या जो भी भाव आ जाता है प्रभुपाद: नहीं, वो तो आता ही है। गेस्ट: कम्पलीट सरेंडर नहीं हो पाता है। और जब कम्पलीट सरेंडर नहीं होता है तो ये सब । प्रभुपाद: नहीं, कम्पलीट सरेंडर होता नहीं। ये तो ठीक है। बाकि भगवान कहते हैं "ये यथा माम" कुछ परसेंटेज तो सरेंडर कीजिये फिर आगे जाके सेण्ट परसेंट हो जायेगा। जो सरेंडर ही नहीं करते कहते हैं मैं भगवान हूँ। गेस्ट: (नॉट क्लियर) प्रभुपाद: इतना दानविक सब हो गए हैं भगवान क्या चीज़ है, भगवान तो मर गया। मैं भगवान हूँ। उधर जब हम अमेरिका में गया तो ये लोग कह रहे थे भगवान तो मर गया। (कन्वर्सेशन नॉट हर्ड) प्रभुपाद: नहीं नहीं, सोऽहं कहने में कोई दोष नहीं है क्यूंकि भगवान जो वस्तू है मैं भी वही वस्तू है। इसमें कहने का दोष नहीं है। भई मैं भगवान हूँ, इसमें दोष है। ये तो भगवान चेतन वस्तू है। "नित्यो नित्यानाम चेतनास चेतनानाम" ये उपनिषद् का वचन है। हम भी नित्य हैं, भगवान भी नित्य है। हम भी चेतन है, भगवान भी चेतन है। बाकि भगवान का चेतनता, हमारा नित्यता कभी-कभी झुक जाता है। ये ही हमारा भौतिक अवस्था है। नित्य वस्तू होते हुए भी ये तात्कालिक शरीर हमको धारण करना पड़ता है। भगवान का ऐसा नहीं। भगवान को इस प्रकार माया शरीर धारण करने को नहीं पड़ता है। इतना फर्क है। और जैसा अग्नि है, अग्नि का स्फुलिंग है, वो स्फुलिंग जब गिर जाता है अग्नि से, बुझ जाता है। तो इस तरह हमारा भगवान से संपर्क किसी तरह से अलग हो जाता है; अलग तो होता नहीं, ब्रह्म हो जाता है की भगवान हमारे संपर्क में नहीं है, तभी हम भगवान भूल जाने से, क्यूंकि वो जो अग्नि स्वरुप है, वो बुझ जाता है। उसको फिर जाग्रत करना पड़ता है। उसको जाग्रत करने का एक ही है की फिर उसको अग्नि मैं, वो जो स्फुलिंग अग्नि से जो इधर गिर गया था, उसको उठा के फिर से अग्नि में दे दीजिये वो फिर से जलेगा। गेस्ट: (नॉट क्लियर) प्रभुपाद: प्रक्रिया एहि है की मैं भागवत दास हूँ; भगवान हमको सब समय रक्षा करेंगे और भगवान की ख़ुशी के लिए, भगवान का संतोष के लिए सब काम हम करेंगे और भगवान जिसमे नाराज़ हो जाते हैं ऐसी काम हम कभी नहीं करेंगे। इसी प्रकार करने से सरेंडर। गेस्ट: (नॉट क्लियर) प्रभुपाद: ये तो शास्त्र है। जैसे भगवान कहते हैं "सर्व धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज" आप नहीं करेंगे तो नाराज़ हो जायेंगे। तो फिर समझना ही पड़ता है। भगवान कहते हैं ऐसी-ऐसी शास्त्रीक चीज़ है; सात्विक भोजन करो, तामसिक भोजन क्यों करते हो? ये तो गीता में सब लिस्ट दे दिया है। लिस्ट में किस प्रकार भोजन है; सात्विक-इस प्रकार भोजन है, राजसिक-इस प्रकार भोजन है, तामसिक-इस प्रकार भोजन है। तो आप तामसिक भोजन क्यों करेंगे? तो भगवान नाराज़ क्यों नहीं होंगे? क्यूंकि तमो गुण में आप जब तक रहिएगा, आप आगे नहीं जा सकते हैं। आपको सात्विक गुण में आना ही पड़ेगा। गेस्ट: (नॉट क्लियर) प्रभुपाद: भगवान थोड़ा से सरेंडर करे। इसको छोड़ा नहीं, ये तो गौ-मॉस खाने वाला बचपन से, कैसे छोड़ा दिया। तो सरेंडर किया, छोड़ दिया। आप सरेंडर कीजिये, हो जायेगा। भगवान तो कहते हैं "अहम् त्वाम सर्व पापेभ्यो मोक्षिष्यामि" मैं बोलता है असश्योरेंस दे रहे हैं। हम सरेंडर नहीं करते। फिर भगवान क्यों करें? गेस्ट: (नॉट क्लियर) प्रभुपाद: किसी का आराधना कीजिये। कहने का मतलब है जैसा गोपी लोग देवी का आराधना किये-कात्यायिनी-तो उनसे वर मांगे की कृष्णा को हमको दे दीजिये। तो आप सब देवता से मांगिये की कृष्णा को हमको दे दीजिये। तो वो साधना ठीक है। और नहीं हमको तो धनं देहि, रूपम देहि, भार्या देहि, ये देहि, वो देहि, मुश्किल तो ये ही है। इसलिए भगवान कहते हैं "तद् भवति अल्प-मेधसाम्"। जिसका मस्तिष्क में गोबर भरा है वो सब मांनने वाला है। अल्प-मेधसाम्, इसको कुछ ब्रेन सब्सटांस है नहीं। तुम धन ले लिया; समझ लो तुमको खूब धन मिल गया, तुम कितना दिन भोग करोगे। अभी तुम समझ लो बिरला हो गया। नेक्स्ट लाइफ में तुमको कुत्ता होने को पड़ता है तो तुम्हारा क्या लाभ हुआ? इसको कहते हैं अलप-मेधसां। "अन्तवत् तु फलम् तेषाम्" १०, २०, ५०, १०० साल भोग करके ये आपको और कुछ शरीर लेने को पड़ेगा ही। शरीर तो आपको लेने पड़ेगा ही जब तक आप मुक्त नहीं होते। तो फिर १०, २०, ५०, वर्ष के लिए बहुत धन लेके आपका क्या लाभ होगा? इसलिए उसको कहते हैं 'ह्रत ज्ञान'। बुद्धि नाश हो गयी है। थोड़े दिन के लिए ये सब ले करके क्या लाभ होगा तुम्हारा? तुम तो नित्य वस्तु है। तुमको तो नित्य वस्तु चाहिए। तो इसको ख्याल नहीं है। इसलिए अलप-मेधसां। "अन्तवत् तु फलम् तेषाम् तद् भवति अल्प-मेधसाम्"। और आखिर में भगवान कहते हैं "सर्व धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज" सब तुमको ठीक हो जायेगा। ये भगवान का बात हमलोग नहीं सुनते हैं तो क्या किया जाय। गेस्ट: ये तो आथे हैं और अपना-अपना बात सुनाते हैं। प्रभुपाद: नहीं, हम तो भगवान की बात बताते हैं हम तो अपना बात नहीं बताते हैं। गेस्ट: (नॉट क्लियर) प्रभुपाद: तो गड़बड़ क्यों होता है? आप भगवान के पास क्यों नहीं, उसके पास क्यों गड़बड़ी लगाते हैं? इसलिए तो हमलोग भगवद-गीता एस इट इस छापते हैं। जितना गड़बड़ी लगाने का आता है उतना सब फ़ेंक दीजिये और एस इट इस सुनिए। भगवान जो बोलता है सिर्फ उसको सुनिए, बस। आपका काम बन जायेगा। ये लोग सुनता है इसलिए काम बन जाता है। ये लोग उनका दिमाग में और कुछ नहीं है। बस सुन लेता हम बोल दिया ये कृष्ण भगवान है तो मान लिया। वो कम्पीटीशन नहीं खड़ा करते हैं। ये इनका विचार है।