710212 - Lecture Hindi - Gorakhpur
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada
Devotee: (introducing recording) 12th of January (sic), 1971 a lawn gathering . . . (indistinct) . . . Gorakhpur . . . (indistinct) . . ..
Prabhupāda:
- . . .jñānāñjana-śalākayā
- cakṣur unmīlitaṁ yena
- tasmai śrī-gurave namaḥ
(I offer my respectful obeisances unto my spiritual master, who with the torchlight of knowledge has opened my eyes, which were blinded by the darkness of ignorance.)
- śrī-caitanya-mano-'bhīṣṭaṁ
- sthāpitaṁ yena bhū-tale
- svayaṁ rūpaḥ kadā mahyaṁ
- dadāti sva-padāntikam
(When will Śrīla Rūpa Gosvāmī Prabhupāda, who has established within this material world the mission to fulfill the desire of Lord Caitanya, give me shelter under his lotus feet?)
- he kṛṣṇa karuṇā-sindho
- dīna-bandho jagat-pate
- gopeśa gopikā-kānta
- rādhā-kānta namo 'stu te
(O my dear Kṛṣṇa, ocean of mercy, You are the friend of the distressed and the source of creation. You are the master of the cowherd men and the lover of the gopīs, especially Rādhārāṇī. I offer my respectful obeisances unto You.)
- tapta-kāñcana-gaurāṅgi
- rādhe vṛndāvaneśvari
- vṛṣabhānu-sute devi
- praṇamāmi hari-priye
(I offer my respects to Rādhārāṇī, whose bodily complexion is like molten gold and who is the Queen of Vṛndāvana. You are the daughter of King Vṛṣabhānu, and You are very dear to Lord Kṛṣṇa.)
- vāñchā-kalpatarubhyaś ca
- kṛpā-sindhubhya eva ca
- patitānāṁ pāvanebhyo
- vaiṣṇavebhyo namo namaḥ
(I offer my respectful obeisances unto all the Vaiṣṇava devotees of the Lord. They can fulfill the desires of everyone, just like desire trees, and they are full of compassion for the fallen souls.)
- śrī-kṛṣṇa-caitanya
- prabhu-nityānanda
- śrī-advaita gadādhara
- śrīvāsādi-gaura-bhakta-vṛnda
(I offer my obeisances to Śrī Kṛṣṇa Caitanya, Prabhu Nityānanda, Śrī Advaita, Gadādhara, Śrīvāsa and all others in the line of devotion.)
- hare kṛṣṇa hare kṛṣṇa kṛṣṇa kṛṣṇa hare hare
- hare rāma hare rāma rāma rāma hare hare
(My dear Lord, and the spiritual energy of the Lord, kindly engage me in Your service. I am now embarrassed with this material service. Please engage me in Your service.)
(01:26)
English or Hindi?
(Hindi)
Thank you very much. (break) (end).
HINDI TRANSLATION
भक्त: (रिकॉर्डिंग प्रस्तुत करते हुए) 12 जनवरी 1971, एक लॉन सभा... (अस्पष्ट)... गोरखपुर... (अस्पष्ट)...
प्रभुपाद:
. . ज्ञानाञ्जन-शालकाय चक्षुर उन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः (मैं अपने आध्यात्मिक गुरु को सादर प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने ज्ञान की ज्योति से मेरी आँखें खोल दी हैं, जो अज्ञान के अंधकार से अंधी हो गई थीं।)
श्रीचैतन्य-मनोभिष्टं स्थापितां येन भू-तले स्वयं रूप: कद मह्यं ददाति स्व-पदान्तिकम (श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद, जिन्होंने इस भौतिक जगत में भगवान चैतन्य की इच्छा को पूरा करने का मिशन स्थापित किया है, मुझे कब शरण देंगे? उनके चरण कमल?)
हे कृष्ण करुणा-सिंधो दीन-बंधो जगत-पते गोपेश गोपिका-कांता राधा-कांता नमोऽस्तु ते (हे मेरे प्रिय कृष्ण, दया के सागर, आप दुःखियों के मित्र और सृष्टि के स्रोत हैं। आप ग्वालों के स्वामी और गोपियों, विशेषकर राधारानी के प्रेमी हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।)
तप्त-कांचन-गौरांगी राधे वृन्दावनेश्वरी वृषभानु-सुते देवी प्रणामामि हरि-प्रिये (मैं अपनी (श्री राधारानी को नमस्कार, जिनका शरीर पिघले हुए सोने के समान चमकीला है और जो वृंदावन की महारानी हैं। आप राजा वृषभानु की पुत्री हैं और भगवान कृष्ण को अत्यंत प्रिय हैं।)
वाञ्चा-कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिंधुभ्य एव च पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः (मैं भगवान के सभी वैष्णव भक्तों को सादर प्रणाम करता हूँ। वे कल्पवृक्षों की तरह सभी की इच्छाओं को पूरा कर सकते हैं, और वे पतित आत्माओं के लिए करुणा से भरे हुए हैं।)
श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु-नित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौर-भक्त-वृन्द (मैं श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु को सादर प्रणाम करता हूँ। नित्यानंद, श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास और भक्ति की पंक्ति में अन्य सभी।)
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे (मेरे प्रिय भगवान, और भगवान की आध्यात्मिक शक्ति, कृपया मुझे अपनी सेवा में लगाएँ। मैं अब इस भौतिक सेवा से शर्मिंदा हूँ। कृपया मुझे अपनी सेवा में लगाएँ।)
प्रभुपाद: अंग्रेज़ी या हिंदी?
(हिंदी)
प्रभुपाद: सज्जनो, मात्रवृन्द। जब नारदजी व्यासदेव को उपदेश कर रहा था भगवद-भक्ति संपर्क में, व्यासजी अनेक शास्त्र प्राणायाम करने के पश्चात यहाँ तक की वेदांत-सूत्र लिखने का पश्चात भी व्यासजी विशेष कुछ सुखानुभव नहीं किया। वो जब ऐसे मौन होक बैठे थे तो नारदजी उनको उपदेश किया था की जब तक भगवान की कथा आप चर्चा नहीं करेंगे तब तक अनेक शास्त्र विद-वेदांत जो आप लिखे हैं इसमें तो काम नहीं बनेगा। नारदजी का कहना था की आप एक अथॉरिटी हैं। आप भगवद-भक्ति का विषय विशेष करके न लिख कर, कर्म-कांडिया विचार ज्यादा आप लिखे हैं उमसे वास्तविक लोक-मंगल नहीं होगा। इस प्रकार नारदजी का उपदेश सुन करके आखिर में व्यासदेवजी ये श्रीमद-भागवतम का प्रणयन किया था। तो नारदजी का उपदेश है:
- त्यक्त्वा स्व-धर्मं चरणाम्बुजं हरेर
- भजनन् अपकवो 'था पतेत ततो यदि
- यत्र क्व वाभद्रं अबुध अमुष्य किम्
- को वार्था आप्तो 'भजातं स्व-धर्मतः
नारदजी कहते हैं क्यूंकि अनेक मनुष्य ये कहते हैं की सब छोड़-छाड़ करके यदि सब भागवत-भजन करेंगे तो दुनिया कैसे चलेगा। ये प्रश्न उठता है। क्यूंकि भगवान स्वयं कह रहे हैं: "सर्व धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज अहम् त्वाम सर्व पापेभ्यो मोक्षिष्यामि मा शुचः"। ये सर्व धर्म का अर्थ तो अनेक प्रकार का हो सकता है। विशेष करके वर्णाश्रम धर्म का लक्ष्य किया जाता है। जैसे ब्राह्मण का धर्म है, क्षैत्रिय का धर्म है, वैश्य का धर्म है, शूद्र का भी धर्म है। इसको स्वधर्म कहा जाता है। तो नारदजी कहते हैं की अपना स्वधर्म को छोड़ करके "त्यक्त्वा स्व-धर्मं चरणाम्बुजं हरेर" यदि कोई भगवान का चरण में शरण ले लेता है क्यूंकि भगवान कहते हैं न "सर्व धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज" तो सबको कहते हैं भगवान की आप चाहे ब्राह्मण होये, चाहे क्षत्रिय होये, अपना-अपना जो नियमित धर्म है, उससे परे जो भागवद धर्म है उसको ग्रहण कीजिये। तो भगवान तो भागवद-गीता में बताये हैं वोई चीज़ नारदजी भी बताते है "त्यक्त्वा स्व-धर्मं चरणाम्बुजं हरेर"। भगवान का कथानुसार यदि अपना-अपना जो स्वधर्म है; स्वधर्म का अर्थ तो अनेक होता है। ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य भी हो सकता है और यदि आप बढ़ा के ले तो यूरोपियन, अमेरिकन है अपना-अपना कोई बिज़नेस करता है, और कुछ करते हैं, वो भी अपना धर्म है। धर्म का अर्थ होता है ओक्कुपेशन। वास्तविक ओक्कुपेशन को धर्म कहा जाता है। तो ये भौतिक शरीर में जो धर्म हमलोग याजन करते हैं वो तत्त्कालिक है। क्यूंकि आज हमारा मनुष्य शरीर है; आज मैं भारतीय हूँ। हमारा ये धर्म है की अपना देश को पूजा करें, देश-भक्ति करें, ये ठीक है। बाकि ये जो देश तब तक है जब तक हमारा ये शरीर है। इसी प्रकार जो ब्राह्मण का धर्म है, क्षत्रिय का धर्म है वो भी जब तक ये शरीर है। ये शरीर को हमको पलटने पड़ेगा, तो उस वक्त और एक कुछ धर्म हो जायेगा। इसलिए भगवान कहते हैं ये जो धर्म है ये तात्कालिक है, इसको छोड़ दो। जो असल धर्म है; क्यूंकि जीवात्मा सनातन, नित्य, सत्य है। भगवान नित्य, सत्य है। ये भगवान के, जीवात्मा के जो नित्यकाल संपर्क है, वो जो धर्म है उसका नाम है सनातन धर्म। तो भगवान जब कहते हैं की "सर्व धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज" कहने का मतलब है ये तात्कालिक जो धर्म है, ब्राह्मण क्षतिर्य बोलिये, हिन्दू मुसलमान, क्रिस्चियन बोलिये, जो कुछ बोलिये ये सब तात्कालिक। जब तक ये शरीर है वो धर्म है। बाकि असल में जो हमारा जो धर्म है उसका हम छोड़ नहीं सकते हैं उसका नाम है सनातन धर्म। वो संतान धर्म क्या चीज़ है वो भगवान जो बताते हैं; "सर्व धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज" सब धर्म छोड़ करके, हमारा चरण में शरणागत हो जाओ। ये जो शरणागत होना ये ही सनातन धर्म है। और इसको छोड़ करके जो कुछ धर्म हमलोग बनाते हैं उसको शास्त्र में कहते हैं कैतव धर्म। इसलिए श्रीमद-भागवतम में कहते हैं "धर्म प्रोज्जित कैतव अत्र" श्रीमद-भागवतम। जो छलना मूलक धर्म है वो श्रीमद भागवतम में है नहीं। छलना मूलक धर्म क्या होता है-जिस धर्म को याजन करने के पीछे कुछ मतलब रहता है उसका नाम है छलना मूलक धर्म। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष जो चलता है; साधारणतः आदमी धर्म याजन करते हैं कुछ कामना का पूर्ती के लिए। हमारा दुःख मिट जाए, हमारा पास अर्थ नहीं है, कुछ अर्थ मिल जाए। इसी प्रकार भावना से सब आदमी मंदिर में भी जाते हैं, चर्च में भी जाते हैं, मस्जिद में भी जाते है। ये जो भागवत कहते हैं ये छलना धर्म है क्यूंकि वो जो धर्म करते हैं वो भीतर में कुछ मतलब है। तो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। मोक्ष तक भी श्रीधर स्वामी कहते हैं वो भी छलना धर्म है। क्यूंकि उसमे कामना है हमको मुक्ति मिल जाये। "भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामी सकाळी अशांत"। ज लोग दुनिया को भोग चाहते हैं उसको कहते हैं भुक्ति। और जो मुक्ति चाहते हैं, जो भगवान के साथ एक हो जाएँ। थे वांट टू मर्ज ईंटो दी एक्सिस्टेंस। वो भी एक कामना है। भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामी। और योगी-योगी लोग भी कुछ माँगते हैं अष्ट सिद्धि; हमको ये योग मिल जाये, ये सिद्धि मिल जाये, वो सोढ़ी मिल जाये। तो ये जो भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामी जितना है, ये चैतन्य महाप्रभु का कथन अनुसार वो सभी अषांत हैं क्यूंकि वो माँगते हैं। माँगने वाले का कभी शांति होती। ये कहने का मतलब है। और "कृष्ण भक्त निष्काम अतएव शांत"। और यदि कृष्ण भक्त होय उसकी कोई कामना नहीं है। वो केवल चाहते हैं की भगवान की चरण की सेवा हुनको मिले। ये कामना नहीं है। ये स्वाभाविक अवस्था है। जो आपको स्वाभाविक अवस्था है। और जैसा कोई भोजन करने के लिए माँगते हैं तो वो भोजन करना तो शारीरिक धर्म है। उसका मतलब नहीं है की कोई माँगते हैं की हमको थोड़ा भोजन दीजिये तो कोई ये नहीं कहेगा की ये पेटू है या लोभी है। नहीं, वो तो उचित है। इसी प्रकार भगवान का और जीव का जो संपर्क है वो अंश-अंशी । इसी प्रकार भगवान भगवद-गीता में बताते हैं की "ममैवांशो जीव भूत" ये मात्र ही हमारा अंश स्वरुप है। इसलिए हरेक जीव का उचित है की अंश को सेवा करना। एहि असल धर्म है और भगवान एहि सीखा रहे हैं की "सर्व धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज"। नारदजी भी वो ही कहते हैं। सब शास्त्र का मत एक ही है "वेदैश्च सर्वैर अहम् एव वेद्य" सब वेदांत का अर्थ एहि है जो भगवान क्या चीज़ है और भगवान से हमारा संपर्क क्या है और वो संपर्क होने का पश्चात हमारा कर्तव्य क्या है और ये कर्तव्य साधन करने से हमको फल क्या मिलेगा। असल में मनुष्य जीवन में ये ही एक मात्र कार्य है। और ये शरीर रहने का कारण जो आहार निद्रा भय मैथुन कार्य है ये पशु लोग भी करते हैं। असल में मनुष्य जन्म हमको मिलता है इसीलिए की भगवान का हमारा क्या संपर्क है और वो संपर्क का अनुसार हमारा कार्यक्रम क्या है और वो कार्यक्रम करने से हमको लाभ क्या है। ये तीन चीज़ समझना है। इसलिए नारदजी कहते हैं जो ये दुनिया का स्वधर्म है, जो उपाधि धर्म इसको कहा जाता है। शरीर मिलने का कारण एक धर्म पैदा हो जाता है। यदि कुत्ता का शरीर मिले उसका भी एक धर्म है और सूअर का भी दह्र्म होता है। इसी प्रकार सभी धर्म अलग-अलग हो सकता है। बाकि जो आत्मा का धर्म है वो सब के लिए एक ही है। इसलिए भगवद-गीता में है "पण्डिता सम-दार्शिनः"। जिसका आत्मा-दर्शन हो गया वो जानते हैं की एक मात्र धर्म है वो है भगवान कि सेवा। वो ही भगवान सीखा रहे हैं। इसलिए नारदजी कहते हैं ये जो भौतिक धर्म है इसको छोड़ करके यदि कोई एकांत भाव से भगवान का चरण में शरणागत हो गया और वो ठीक-ठीक भजन भी नहीं कर सकता "भजन अपक्क्व" क्युकी सब चीज़ में समय लगता है। ये आत्म धर्म को साधन करने कि लिए इसमें समय लगता है "आदौ श्रद्धा ततः साधु संघ" इसका क्रम है। भगवद प्रेम लाभ करने कि लिए ये सब क्रम है। पहले तो श्रद्धा होनी चाहिए। जैसा आप लोग इधर भागवत कथा सुनाने कि लिए आये हैं ये श्रद्धा है। ये श्रद्धा को बढ़ाने कि लिए सत्संग करना चाहिए, साधु-संघ करना चाहिए। जो लोग भगवद-भजन कर रहे हैं उनको साथ मिलना-जुलना, उनसे मित्रता करना ये उचित है। श्रद्धा का पश्चात यदि कोई साधु संघ करे तो ये साधु संघ करने से उसको भजन क्रिया करने का मौका मिल जाता है। और भजन क्रिया करने से ये जो अनर्थ है, जो हम दुनिया में आये हैं अनेक अनर्थ को हमने प्रस्तुत किया है। जैसा मान लिए की कोई आदमी सिगरेट पीता है शराब पीता है ये तो अनर्थ है। अनर्थ इसलिए है की शराब न पीने से कोई मर नहीं जाता है। और सिगरेट नहीं पीने से कोई मर नहीं जाता है। ये तो असत संघ से आदमी सीखा है, इसी प्रकार सात संघ में इसको छोड़ भी सकता है। इसी प्रकार अनेक अनर्थ हमारा जीवन में है। ये भजन क्रिया करने से ये सब अनर्थ मिट जायेगा। "आदौ श्रद्धा तथा ततः साधु संगो 'था भजन क्रिया ततो 'नर्थ निवृत्ति स्यात ततो निष्ठा रुचिस ततः"। ततो निष्ठा और ;नर्थ निवृत्ति हो जाने से की भगवद-भक्ति में निष्ठा हो ये हमको करनी चाहिए। ततो निष्ठा ततः आसक्ति" जिसका पास आसक्ति, इसको छोड़ नहीं सके और रूचि, भागवत कथा में रूचि हो और कोई कथा उनको अच्छा नहीं लगेगा, ये सब चीज़ है। उसका बाद भगवद भाव, सब समय भगवद दर्शन, सब चीज़ में भगवद दर्शन। भगवान की जो एनर्जी, भगवान की जो शक्ति सब चीज़ में । ये "पंडिता सम दार्शिनः"। उसके बाद भगवद प्रेम। ये भागवत प्रेम लाभ करना ही मनुष्य जीवन का एक मात्र कार्य है। ये शास्त्र सिद्धांत है। नारदजी कहते हैं की ये भगवद प्रेम लाभ करने कि लिए यदि कोई अपना स्वधर्म को छोड़ करके एक मात्र भगवान का शरण में आश्रय लिया और वो भजन परिपक्क्व नहीं हुआ, ठीक-ठीक नहीं हुआ, उसका पतन भी हो गया। क्यूंकि ऐसा भी होता है जैसा अजामिल। अजामिल ब्राह्मण का लड़का और उनका पिताजी का आग्न्या का अनुसार वो ठीक-ठीक जा रहा था परन्तु इत्तिफ़ाक से कोई शूद्र-शूद्राणी को सम्भोग करने को देख करके उसका पतन हो गया और बहुत आचार वृत्त हो गया और जा कर वो ब्राह्मण से बहुत पतित हो गया। तो ऐसा हो सकता है। तो नारदजी कहते हैं की अगर भागवत भजन करते-करते यदि किसी का पतन भी हो गया तो उसमे नुक्सान क्या? ये उनका कहने का मतलब है।
- भजन अपक्वो 'था पते ततो यदि
- यात्रा कव वभद्रं अभुद अमूल्य किम
अगर उसका पतन भी हो गया तो उसमे नुक्सान क्या है? और "को वर्थ आप्तोऽभजातं स्व-धर्मतः" और जो अपना धर्म में निश्चित है, ब्राह्मण धर्म में, क्षत्रिय धर्म में और कभी भागवत भजन नहीं किया तो उसको क्या लाभ? ये कहने का मतलब। जो साधना स्वधर्म छोड़ करके, जैसे भगवान कहते हैं "सर्व धर्मान परित्यज" वो सुन करके सव-धर्म छोड़ करके भगवान का चरण में जीवन को समर्पण कर लिया और जीवन समर्पण कर दिया और भजन करना चाहिए। बाकि भजन कर कर समझ लेता है और उस समय में अगर किसी कारण उसका पतन भी हो गया तो नारदजी कहते हैं की उसका कोई नुक्सान नहीं है और जो भागवत भजन नहीं किया और अपना स्व-धर्म में नियुक्त रहा उसको क्या लाभ हुआ? ये विचार करिये। ये बड़ा सुन्दर श्लोक है। भागवत में एहि सिद्धांत है। अपना स्व-धर्म याजन करके क्यूंकि स्व-धर्म याजन करने के लिए जो आप परिश्रम कर रहे हैं उनका उद्देश्य है की भगवान को समर्पण हो। "वेदैश्च सर्वैर अहम् एव वेद्य' "धर्मः स्वानुष्ठितः पुंसाम्" अपना स्व-धर्म को अच्छी तरह से साधन करते हैं "धर्मः स्वानुष्ठितः पुंसां विश्वक्सेन-कथासु यः" वो धर्म साधन करके यदि भगवान की कथा में रूचि नहीं हुई तो श्रम एव ही केवलं"। और कहते हैं
- वासुदेवे भगवती
- भक्ति-योगः प्रयोजितः
- जनयत्य आशु वैराग्यम्
- ज्ञानम् यद् ब्रह्म-दर्शनम्
भगवान वासुदेव में भक्ति योग अर्पण करने से उनका ज्ञान वैराग्य सब कुछ अपने-आप सब उनको मिलता है। "यस्यास्ति भक्ति भागवत अकिंचना" ये सब शास्त्र का सिद्धांत है। तो बड़े-बड़े महाजन का भी ये ही कथन है। तो यदि भजन अपक्वा समय में यदि उसका पतन भी हो जाता है क्यूंकि वो भजन किया, जितना उसको लाभ हुआ। समझ लीये १००% के भीतर उसको १०% हुआ, २५% लाभ हुआ, वो फिर कभी घटेगा नहीं "स्व-अल्पं अप्य अस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात"। भागवत भजन करने के एहि फल है यदि थोड़ा भी कुछ किया, पूरा कर दिया तो काम ठीक हो गया "त्यक्त्वा देहम पुनर जन्म नैति"। यदि नहीं हुआ तो भी उसको परजन्म में उसको मनुष्य जन्म और अच्छा जन्म मिलेगा। शास्त्र में ऐसे कहते हैं, भगवान खुद कहते हैं की
- शुचीनां श्रीमतां गेहे
- योग-भ्रष्टो भिजायते
जो योग ब्रष्ट हो जाते हैं, उसको एक मौका मिलता है। उसको धनि, वणिक का घर में जन्म होता है नहीं तो उसका ब्राह्मण का घर में जन्म होता है। क्यूंकि इस प्रकार घर में उसका जन्म होने से फिर आगे जहाँ तक वो भागवत भजन किया था, भजन का अधिकार जहाँ तक मिला था उससे परे वो और आगे जायेगा। ये गॅरंटी था। इसलिए सब को चाहिए भागवत भजन अवश्य करना और उसमे पक्का हुआ और नहीं हुआ तो उसमे कोई नुक्सान नहीं है। ये नारदजी का कहना है और हमलोग ये हो सबसे विनती करते हैं की जो आपलोग जिस अवस्था में हैं रहिये, इसमें कोई बाधा नहीं है। चैतन्य महाप्रभु कहते हैं 'स्थाने स्थिताः श्रुति-गतां तनु-वान-मनोभिर'। अपने स्थान में रहिये; आप बिज़नेस करते हैं कीजिये,आप वकालत करते हैं वकालती कीजिये, आप प्रोफेसर हैं प्रोफेसर रहिये, परन्तु कृष्णा कॉन्शियस को डेवेलोप कीजिये। जो आपकी असल कार्य है उसको छोड़िये नहीं। उसको छोड़ने से आपको कोई सुख नहीं है। इसको शुरू कीजिये और कलियुग में इस कृष्णा कॉन्शियसनेस को लाभ करने के लिए कोई विशेष आपको झंझट भी नहीं है। केवल मात्र भगवान के नाम:
- हरे कृष्ण हरे कृष्ण
- कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
- हरे राम हरे राम
- राम राम हरे हरे
ये नाम को जपा कीजिये। और इसमें "नियमित स्मरणे न कालः" और ये नाम को स्मरण करने के लिए कोई काल-आकाल विचार नहीं। किसी भी अवस्था में बैठे हुए हैं आप नाम जप कर सकते हैं। देखिये ये यूरोपियन, अमेरिकन बच्चे ये सब समय ये माला फेरा। आजकल वो रेडियो, ट्रांजिस्टर ले करके घूमेगा, उसमे कोई दोष नहीं है। अगर कोई माला का झोली ले के घूमेगा तो सब क्रिटिसाइज़ करेगा। उसमे सहनशील होना चाहिए। चैतन्य महाप्रभु कहते हैं जो भागवत भक्त को सब समय आदमी कटाक्ष करते हैं, शत्रु भी बन जाते हैं। इसलिए चैतन्य महाप्रभु कहते हैं:
- त्रिनाद अपि सुनीचेन
- तरोर इवा सहिष्णुना ,
जैसे घास होता है सहनशील और जैसा पेड़ होता है सहनशील उस प्रकार सहनशील हो करके अपन कर्तव्य साधन कीजिये। कौन क्या बोलेगा, नहीं बोलेगा, ये सब दृष्टिपात न कीजिये। भागवत नाम सब समय
- हरे कृष्ण हरे कृष्ण
- कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
- हरे राम हरे राम
- राम राम हरे हरे
ये बहुत सरल विषय है। यदि आप सरल भाव से इसको ग्रहण करेंगे वो भी ठीक है और यदि आप फिलोसोफी, सइंस इसका भीतर इसको समझने को चाहते हैं उसके लिए हमारा पास किताब भी बहुत है। उसको आप पढ़ के भी समझ सकते हैं। कोई मुश्किल नहीं है। यदि आप सरल भाव से आप इसको स्वीकार कर लेंगे तो जैसे आपका जीवन का परिवर्तन होता है, इसमें कोई नुक्सान नहीं है और लाभ बहुत है। इतना ही हमलोग का निवेदन है की सब मिल करके सब समय;
- हरे कृष्ण हरे कृष्ण
- कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
- हरे राम हरे राम
- राम राम हरे हरे
सब समय जपा कीजिये। थैंक यू वैरी मच। (ब्रेक) (अंत).
- 1971 - Lectures
- 1971 - Lectures and Conversations
- 1971 - Lectures, Conversations and Letters
- 1971-02 - Lectures, Conversations and Letters
- Lectures - India
- Lectures - India, Gorakhpur
- Lectures, Conversations and Letters - India
- Lectures, Conversations and Letters - India, Gorakhpur
- Lectures - General
- Lectures and Conversations - Hindi
- Lectures and Conversations - Hindi to be Translated
- Audio Files 20.01 to 30.00 Minutes
- 1971 - New Audio - Released in June 2016
- 1971 - New Transcriptions - Released in June 2016