720117 - Lecture Hindi - Jaipur
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada
Prabhupāda: (Hindi)
HINDI TRANSLATION
डिवोटी: मॉर्निंग जनुअरी १७, जयपुर प्रभुपाद:
- मैया आसक्त-मनाः पार्था
- योगं युञ्जन मद-आश्रयः
- असंशयं समग्रं माम
- यथा ज्ञास्यसी तच छर्नु
भगवान स्वयं भगवद भक्ति योग किस तरह से पालन करना है उस विषय में समझा रहे हैं। "मैया आसक्त-मनाः पार्था" भगवान में आसक्ति बढ़ानी चाहिए। अभी आसक्ति हमारा दुनिया में है। धन में, जन में, स्त्री में, देश में, कुटुंब में, समाज में, ये सब विषय में हमारी आसक्ति है। ये आसक्ति भगवान में लगाना है। उसका नाम है भगवद भक्ति योग। योग का अर्थ होता है जो कोई चीज़ से संपर्क अच्छी तरह से बनाना। उसका नाम योग। भगवान से हमारा संपर्क है। जिस प्रकार वेद में कहते हैं "नित्यो नित्यानाम चेतनस चेतनानाम" अनेक नित्य है, हमलोग जीव, जीव भी नित्य और भगवान भी नित्य। जीव भी चेतन और भगवान भी चेतन। भगवान मुर्दा नहीं है, निराकार नहीं है। जैसा हमारा आकर है, आपका आकर है, मैं चल-फिर सकता हूँ, भगवान भी ऐसा है। भगवान भी चल-फिर सकता है। भगवान निष्कर्म नहीं है। भगवान का काम बहुत है। हमलोग-आपलोग थोड़ा सा बिज़नेस करते हैं, या और कुछ करते हैं तो कितना काम रहता है, हमको फुर्सत नहीं मिलता है। अगर कहीं भागवत कथा होता है तो हमको आने को फुर्सत नहीं होता है। और जो भगवान जो विश्व ब्रह्माण्ड को पालन कर रहे हैं उनको कितना काम है थोड़ा समझ लीजिये। बहुत काम। भगवान कहते हैं ये जो विश्व ब्रह्माण्ड है "एकांसेना स्थितो जगत" ये जो भौतिक जगत है ये एक अंश मात्र है। और जो चित जगत है उसका तो कोई कहने का ही बात नहीं है। ये एकांश में समझ लीजिये अनंत कोटि ब्रह्माण्ड है "यस्य प्रभा प्रभवतो जगद अंड कोटि" होता है ब्रह्माण्ड। एक ब्रह्माण्ड जो आप लोग देख रहे हैं ये नमूना है। इसी प्रकार अनंत कोटि ब्रह्माण्ड हैं, और एक-एक ब्रह्माण्ड में अनंत कोटि लोक है।
- यस्य प्रभा प्रभावतो जगद्-अण्ड-कोटि-
- कोटिषव अशेष-वसुधादि विभूति-भिन्नम्"
ये भगवान का एकांश का परिचय है। और त्रितयांश चित जगत है। तो भगवान का राज अनेक लम्बा-चौड़ा है। काम उनका बहुत है। इसलिए वेद में कहता हैं;
- नित्यो नित्यनाम चेतनस चेतननाम
- एको बहुनाम विदधाति कामां
एक जो चेतन वस्तु है, नित्य वस्तु भगवान वो अनेक जो नित्य चेतन है जीवात्मा उनको सब भरण-पोषण सब भगवान करते हैं। तो भगवान से हमलोग का नित्य संपर्क है। परन्तु अभी हमलोग भूल गए हैं भगवान को। इसीलिए माया पकड़ ली है। श्री चैतन्य चरितामृत में कहते हैं की; :अनादि बहिर्मुख जीव मुख भूली गेला
- अतेव माया तारे देय संसार-दुःख
तबसे जीव भगवान को भूल गया है। उसका इतिहास मालूम नहीं है। परन्तु बात एहि है की अनादि काल से। अनादि काल का अर्थ होता है जब सृष्टि होती है तो उसको आदि समय कहा जाता है, उससे भी पहले। इस सृष्टि के पहले भी जीव, जो बद्ध जीव है, हो दुनिया में फंसे हैं, वो सृष्टि के पहले से भी भगवान से विमुख "ततो विमुख चेतसा। प्रह्लाद महाराज कहते हैं की भगवान हमारा लिए कोई चिंता नहीं है। मैं तो आपका दास हूँ और आपका श्रवण-कीर्तन में मग्न चित्त है।
- नैवोद्विजे पर दुरत्ययवैतरण्या-
- स्त्वद्वीर्यगायनमहामृतमग्नचित्त: ।
क्यूंकि आपका जो नाम, गान, रूप, लीला, परिक, वैशिष्ट है इस विषय कीर्तन करने में जो हमारा आनंद होता है ोहिर हमारा और कोई फ़िक्र नहीं। बाकि हमारा एक फ़िक्र है, वो क्या है;
- शोचे ततो विमुखचेतस इन्द्रियार्थ
- मायासुखाय भरमुद्वहतो विमूढान् ॥
मैं ये मुर्ख लोग के लिए सोच रहा हूँ जो की इधर दस-बीस-पच्चास वर्ष सौ वर्ष ज्यादा-से-ज्यादा रहेगा। बाकि माया सुख, तात्कालिक सुख के लिए अनेक वर्ष है इसीलिए समय नष्ट कर रहे हैं। ये मुर्ख के लिए मैं सोच रहा हूँ। नहीं तो हमारा लिए कोई सोचने का बात नहीं है। मैं कहीं भी बैठ जाऊँगा और आपका नाम-गान कीर्तन करूंगा। ये वैष्णव विचार है। वैष्णव भगवान का आश्रय में हैं। भगवान उनको रक्षा करते हैं "कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त्या प्रणश्यति"। तो भगवान भक्त को; भगवान सभी को पालन करते हैं। विशेष करके भक्त को। "ये भजन्ति तु मां भक्त्य मयि ते तेषु चाप्यहम्" "समोऽहं सर्वभूतेषु" भगवान सबके पालक हैं। पशु, पक्षी, कीट-पतंगा, जानवर, सभी के पालक हैं। लेकिन विशेष करके उनको जो भक्त है "ये माम भजंति कृत्य"। प्रीति से, प्रेम से जो भगवद भजन मे है उनके लिए भगवान का विशेष प्यार है। ये शास्त्र सिद्धांत। इसलिए भगवान खुद बता रहे हैं "मैया आसक्त-मनाः पार्थ" जिसकी आसक्ति भगवान के ऊपर हुई है, उसका जीवन सफल। और नहीं तो माया के आसक्ति में वो फंसे हुए हैं और जन्म-जन्मांतर अनेक शरीर पलटते-पलटते कभी स्वर्ग लोक में, कभी नर्क लोक में, कभी ब्राह्मण, कभी शूद्र, कभी और कुछ, कभी जानवर इसी प्रकर भ्रमण कर रहे हैं। इसको बंद करने के लिए एक ही मात्र उपाय है भगवद-भक्ति योग। वो भगवद-भक्ति योग क्या चीज़ है भगवान मे आसक्ति बढ़ाने के लिए बस।
- मैया आसक्त-मनाः पार्था
- योगं युञ्जन मद-ाश्रयःवो योग साधन करने के लिए भगवान का आश्रय ग्रहण करना होगा या तो भगवना का जो भक्त है उनका आश्रय ग्रहण करना होगा। आप से आप नहीं होगा। इसलिए हमारा वैष्णव पदत्ति है "आदौ गुरुवाश्रयं'। आदौ, पहले सद गुरु का आशर्य ग्रहण करना। भगवान खुद कहते हैं;
- तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
- उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥
वेद भी कहते हैं "तद्-विज्ञानार्थं स गुरुं एवाभिगच्छेत" की वो विज्ञानं को समझने के लिए ये भक्ति योग बहुत भारी विज्ञानं है। ऐसा मन-माफिक नहीं, ये विज्ञानं है। "ज्ञानं स विज्ञानं" ये सब भगवान आगे बताएँगे। जैसे विज्ञानं स्कैनटिफिक। आजकल विज्ञानं का बहुत कदर है, होना भी चाहिए। इसी प्रकार भगवद-भक्ति भी एक विज्ञानं है। जैसे-जैसे नियम है अगर हमलोग पालन करेंगे तो भगवान को मिलना कोई मुश्किल नहीं है। तो इसी लिए भगवान खुद दिखा रहे हैं की किस तरह से भगवान मे आसक्ति बढ़ सकेगी और किस तरह से हमलोग भगवान को ठीक-ठीक तरह से प्राप्त करेंगे, वो सब भगवान खुद समझा रहे हैं। नहीं तो हमारी बुद्धि से भगवान को समझना बिलकुल संभव नहीं है। "अतः श्री कृष्णा नामादि न भवेद ग्राह्यं इन्द्रियैः" हमारा इन्दिर्य से ये जो ज्ञान है बहुत सीमित है और भगवान असीम है। सीमित ज्ञान से भगवान को समझना संभव नहीं है। लेकिन आजकल वैज्ञानिक लोग सीमित ज्ञान से ये भौतिक विज्ञानं को भी ठीक-ठीक समझ नहीं पा रहे हैं। तो भगवान को क्या समझेंगे। इसीलिए ब्रह्म संहिता मे कहते हैं;
- पंथास तू कोटि-शत-वत्सर-सम्पर्गाम्यो
- वायोर अथापि मनसो मुनि पुंगवानाम
बड़े-बड़े मुनि पुंग, साधारण मुनि नहीं, श्रेष्ठ मुनि। वो अगर "पंथास तू कोटि-शत-वत्सर-सम्पर्गाम्यो वायोर अथापि" वायु का रथ एयरोप्लेन, ये मन का रथ से अनंत कोटि वत्सर आगे जा रहा है तो भगवान कहाँ उसको नहीं मिल सकता है। ऐसे शास्त्र में बहुत सारा विस्तार है। भगवान हमारा साथ-साथ मे ही है और नहीं तो भगवान बहुत दूर मे है। जसिको भगवान भागवत प्रेम है "प्रेमांजन चुरित भक्ति विलोचनेन" जिसका प्रेम अंजलि से आँख मे बिछा हुआ है वो व्यक्ति "प्रेमांजन चुरित भक्ति विलोचनेन" आँख से सब समय भगवान को देखता है।
- प्रेमांजन चुरित भक्ति विलोचनेन
सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति संत जो है सब समय भगवान का दर्शन करता है। और दुसरे जो है "पंथास तू कोटि-शत-वत्सर-सम्पर्गाम्यो" हज़ारों वर्ष अगर कीर्तन करते रहें तो तब भी भगवान "अविनचिंत तत्त्व" रहेगा। इसलिए भगवान को समझने के लिए भक्ति योग और भगवान मे आसक्ति बढ़ानी चाहिए।
- मैया आसक्त-मनाः पार्था
- योगं युञ्जन मद-आश्रयः
और योग साधन करने के लिए भगवान का खुद आश्रय करना चाहिए नहीं तो भगवान का जो प्रिय भक्त है उनको आश्रय करना चाहिए। मद आश्रय, मद का अर्थ होता है हम नहीं तो भगवान का प्रिय भक्त।
- साक्षाद्-धारित्वेन समस्त-शास्त्रैर
- युक्तस तथा भाव्यता एव सद्भिः
भक्त का विषय शास्त्र मे कहते हैं की साक्षाद भगवान ही है परन्तु मायावादी लोग जैसे कहते हैं की मैं भगवान हो गया, भगवद भक्त कभी ऐसे नहीं कहते हैं। भगवद भक्त जानते हैं की मैं भगवान का नित्य दास हूँ। "किन्तु प्रभोर यहः प्रिय एव तस्य" ये भगवान का जो दास है। इसलिए गुरु को शास्त्र अनुसार कहते हैं दास भगवान। भगवान खुद है प्रभु भगवान और भगवान का जो भक्त है, जो की भगवान का तरफ से गुरु का काम करते हैं उसको दास भगवान कहा जाता है। यानी वो भगवान का दास है तो उनको भगवान का जैसे सम्मान देना ये शास्त्र का नियम है।
- मैया आसक्त-मनाः पार्था
- योगं युञ्जन मद-आश्रयः
- असंशयं समग्रं माम
यदि भगवान का आश्रय मे या तो भगवान का भक्त का आश्रय मे भक्ति योग हमलोग साधन करेंगे तो असंशयं, और कोई संशय नहीं रहेगा की भगवान किस प्रकार है, भगवान कहाँ है, भगवान क्या कर रहे हैं, भगवान किस तरह से दुनिया मे आते हैं, सब बात असंशयं और समग्रं। समग्रं मतलब सम्पूर्ण भगवान असीम है। भगवान का सम्पूर्ण भगवान ही नहीं जानते। परन्तु जहाँ तक संभव है भागवत तत्त्व ज्ञान यदि भगवान का आश्रय मे भक्ति योग हमलोग साधन करेंगे, या भगवान का भक्त का आश्रय मे भक्ति योग साधन करेंगे तो असंशय, कोई संदेह नहीं। अभी कर्मी, ज्ञानी, योगी ये सब जितने हैं तो इतना संशय रहता है। कभी-कभी ये लोग कहते हैं की भगवान है की नहीं है। कोई कहते हैं की भगवान है ही नहीं । ये शास्त्र सब जितने बताये हैं। इधर-उधर का बात बताय आदमी को भड़काने के लिए। ये सब कहते हैं। आजकल विशेष करके हमारे देश मे बड़े-बड़े नेता लोग ऐसी कहते हैं की भारतवर्ष भगवान-भगवान कह करके ये जानने मे नहीं आया पड़ेगा। ये हमारा बड़े-बड़े लीडर का विचार है। ये सब रूढ़ विचार है। भागवत संपर्क नहीं होने से। शास्त्र में कहते हैं;
- भगवद्-भक्ति-हीनस्य
- जातिः शास्त्रं जपस तपः
- अप्राणस्येव देहस्य
- मण्डनं लोक-रंजनम्
भगवद भक्ति हीन हो करके बड़ी जाती और भगवद्-भक्ति-हीनस्य जातिः योग और धर्म-कर्म जो कुछ है ये सब क्या है लोक रंजनम। इसमें विशेष कुछ लाभ नहीं है।
:भगवद्-भक्ति-हीनस्य
- जातिः शास्त्रं जपस तपः
- अप्राणस्येव देहस्य
वो किस तरह से है? जैसे मुर्दा है अगर उसको सजाया जाये उसमे जो आदमी मर गया है उसको अपना भाई-बिरादरी वो लोग थोड़ा सा आनंद ले सकता है 'देखो जी हमारा पिताजी मर गया, कितना सजा के ले कर जा रहे हैं"। नहीं, उसको सजाने से लाभ क्या होगा? "अप्राणस्येव देहस्य मण्डनं लोक-रंजनम्"। ये लोक रंजन है, इसमें कुछ लाभ नहीं। भगवद भक्ति विहीन वो जीवन उसका सफल। मनुष्य जीवन हमको मिला है इसलिए की भगवान से संपर्क बना कर के जीवन सफल करें। बाकि ये काम जो नहीं करता है उसके लिए भगवान बताते हैं "न मॉम दुष्कृतिनो मुद्दा प्रपद्यन्ते नराधमा" वो नराधमा है। मनुष्य जीवन उनको मिला परन्तु भगवद भजन नहीं किया, भगवान से संपर्क नहीं बनाया। भगवान क्या चीज़ है समझा नही। तो वो नराधम। ये जो मनुष्य शरीर मिला बाकि वो अधम, पशु से भी नीच। इस प्रकार भगवान कहते हैं, ये शास्त्र का विचार है। इसलिए भगवान में हमारी आसक्ति बढ़ानी चाहिए और उसके लिए भक्ति योग ही एक मात्र कार्यक्रम है। "भक्त्या मॉम अभिजानाती" और दुसरे तरह से, और किसी प्रकार से भगवान को कोई नहीं समझ पाया है। भगवान खुद कहते हैं; भगवान कहते हैं "भक्त्या मॉम अभिजानाती" भक्ति द्वारा ही हमको समझ पाएंगे। भगवान कभी नहीं बताया की ज्ञान से भगवद भगवान को समझ पाएंगे। एक योग से ही भगवान को समझ पाए, योग से भगवान को समझ पाए, कर्म से ही भगवान को समझ पाए, नहीं। ख़ास करके कहते हैं "भक्त्या मॉम अभिजानाती यावां यस चास्मि तत्त्वतः" भगवान क्या चीज़ है, भगवान से हमारा क्या संपर्क है दुनिया क्या चीज़ है "तस्मिन् विज्ञाते सर्वं विज्ञातम"((19.6-12) ऑडियो नहीं। "आदौ श्रद्धा ततः साधू संग" ये श्रद्धा बढ़ाने के लिए साधु का संघ करना चाहिए। साधु कौन ह।? साधु जो भगवद भजन करता है उसका नाम है साधु। 'अपि चेत्सुदुराचारो भजते माम 'नन्यभाक् साधुरेव स मन्तव्य:"। साधु और कोई नहीं है। जो भगवद भजन नहीं करता है वो साधु नहीं है। जो भगवद भजन नहीं करता है उसको कहता है की "आसुरी भावं आश्रितः"। उसको असुर कहा जाता है। दुनिया में दुइ प्रकार का व्यक्ति है: एक असुर है और एक देवता है। "विष्णु भक्त भवेद दैवा"। जो भगवान का भक्त है, विष्णु तत्त्व, कृष्णा, राम, विष्णु भगवान, ये सब "विष्णु भक्त भवेद दैवा आसुरस तद विपर्ययः"। और असुर कौन है जो भगवद भक्त है नहीं। बड़े-बड़े आप लोग जानते हैं असुर जैसे रावण, हिरण्यकशिपु, कंसा ये सब बड़े विद्वान थे, पड़े-सुने थे और और कोई शिवजी का भक्त है, कोई ब्रह्माजी का भक्त है, बड़े-बड़े भक्त है। बाकि शास्त्र इनको असुर बताया है। क्यों, ये भगवद भक्ति से विरोध। जैसे रावण; रावण का अनेक गुण था बाकि राम को नहीं मानता। इसलिए उसको राक्षस कहा जाता है, असुर कहा जाता है और आज तक भी आप लोग रामलीला करते हैं, सब जानते हैं की रावण को कितना अपमान किया जाता है। एहि शास्त्र का सिद्धांत है। जिसको भगवद भक्ति है नहीं, उसके गुण का आदर है नहीं। "हराव अभक्तस्य कुतो महद्गुण" भगवद भक्ति जिसके पास है नहीं उसका कोई महद्गुण हो ही नहीं सकता। और उसका महद्गुण का कोई आदर भी नहीं है शास्त्र में। ये सब विचार है। इसलिए भगवान स्वयं कहते हैं; मैया आसक्त-मनाः पार्था
- योगं युञ्जन मद-आश्रयः
- असंशयं
कुछ संदेह नहीं रख सकता, सम्पूर्ण से "कृष्णस तू भगवान स्वयं" ये शास्त्र का सिद्धांत है। "एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्" । "ईश्वरः परमः कृष्णा" परमेष्वर जिसको कहा जाता है कौन है? वो भगवान स्वयं कृष्णा।
- ईश्वरः परमः कृष्णः
- सच्चिदानन्दविग्रहः
वो निराकार नही। विग्रहः भगवान सच्चिदानन्दविग्रहःये जो हमलोग का विग्रह है, आपका शरीर, हमारा शरीर, ये भौतिक शरीर है ,भगवान का शरीर भौतिक नहीं ,ये जानते हैं। जो भगवद भक्त नहीं हैं वो जानते नहीं। इसलिए भगवान कहते हैं "अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।"। क्यूंकि भगवान ऐसे मनुष्य का रूप से हमारे सामने आते हैं। तो जो मुद्दा होता है, गधा, वो भगवान को मनुष्य ही समझता है। अजी ये तो मनुष्य है कृष्णा, राम, नहीं। भगवान आते हैं हमको कृपा करने के लिए मनुष्य के जैसे शरीर लेके। बाकि भगवान, जैसा हमारा भौतिक शरीर है, भगवान का शरीर ऐसे नहीं है। जन्म-मृत्यु का अधीन नहीं है भगवान। सच्चिदानन्दविग्रहः सत्य का अर्थ होता है नित्यकार, चित आनंदमय, ज्ञानमय, सच्चिदानन्द, ये भगवान का विग्रह है। इसलिए जब भगवान प्रकट होते हैं, उनका सब लीला आनंदमय। वेदांत सूत्र में कहते हैं "आनंदमयो 'भ्यासात"। भगवान अभ्यास से, स्वाभाविकतः अनादमय हैं। विशेष करके भगवान का ये कृष्ण रूप आनंदमय। तो मनुष्य जीवन में ये उच्चित है। इसलिए भगवान खुद आते हैं सीखाने के लिए आकर्षण करने के लिए बृन्दावन लीला से; आकर्षण करने के लिए हमारे सामने वृन्दावन लीला दिखते हैं। इसको अच्छी तरह से समझना और भगवान में आसक्ति बढ़ानी चाहिए। किस तरह से आसक्ति बढाती है उसका प्रक्रिया गोस्वामी लोग बताये हैं की आदौ श्रद्धा, ये श्रद्धा भागवत कथा सुनने के लिए श्रद्धा भगवद भक्त से मिलना-जुलना; आदौ श्रद्धा तथा साधु संघ। साधु संघ करना चाहिए। साधु संघ का अर्थ होता है जो भगवद भजन करने वाला है। देखिये ये अमेरिकन, यूरोपियन लोग ये भगवद भजन कर रहे हैं और कहीं भी जाता है सारा दुनिया में इनको व्यवाहर देख कर के सब आदमी आकर्षित होता है और आस्ते-आस्ते वो सब भगवद भक्ति में सब लगते हैं। ये चालू है। ये जो श्री कृष्णा भावनामृत संघ, अंतराष्ट्रीय कृष्णा भावनामृत संघ, ये चालू है बनजारा में। अभी इधर से जा करके मैं अफ्रीका जाऊँगा। अफ्रीका में, उधर अफ्रीका में अफ्रीकन लोग भी बहुत वैष्णव हुआ। जैसा आप लोग सुन के सुखी हो गए। सब जगह में हरी कीर्तन का प्रचार हो रहा है और आप लोग भी, आप लोग का तो है ही है ये चीज़। आप लोग को तो और आनंद होना चाहिए जो आपका कृष्णा, ये कृष्णा सब जगह में जा करके ये मूर्ति जो है; ऐसी मूर्ति हमलोग अफ्रीका में भेज दिया, नैरोबी में हमारा मंदिर हो रहा है। और ये मूर्ति नई यॉर्क में जायेगा। उधर अभी मूर्ति है, छोटी से है; अभी ये बड़ी मूर्ति उधर प्रतिष्ठित किया जायेगा। उनलोग का बहुत भारी मंदिर है। २०० भक्त उधर सब समय नित्यकार रहते हैं। इसी प्रकार पूजा, पाठ, कीर्तन सब लगे हुए हैं। उसका नमूना आप लोग सब देख रहे हैं। तो ये ही भगवद भक्ति दुनिया में प्रचार करना चाहिए। तभी आदमी को सुख होगा। जब आदमी समझे की भगवान कृष्णा;
- भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
- सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
जब आदमी सब एहि समझ जायेंगे एक मात्र भोक्ता कृष्णा और सब भगवान के भृत हैं, ये जब समझ जायेंगे तभी वो शांति उसको मिल सकेगा। अभी तो दस बज गया। आप लोग को देर होगा। फिर कल मिलेंगे आपसे। श्याम को भी बोलेंगे भागवत से। थैंक यू वैरी मच हरे कृष्णा
- 1972 - Lectures
- 1972 - Lectures and Conversations
- 1972 - Lectures, Conversations and Letters
- 1972-01 - Lectures, Conversations and Letters
- Lectures - India
- Lectures - India, Jaipur
- Lectures, Conversations and Letters - India
- Lectures, Conversations and Letters - India, Jaipur
- Lectures - General
- Lectures and Conversations - Hindi
- Lectures and Conversations - Hindi to be Translated
- Audio Files 20.01 to 30.00 Minutes
- 1972 - New Audio - Released in December 2015
- 1972 - New Transcriptions - Released in December 2015