731029 - Lecture BG 07.01 Hindi - Vrndavana
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada
HINDI TRANSLATION
प्रद्युम्न: (श्लोक वगैरह का जाप करवाते हैं)
- मय्य आसक्त-मनाः पार्थ
- योगं युञ्जन मद-आश्रयः
- असांशयं समग्रं माम्
- यथा ज्ञानस्यासि तक चृणु
(भ.गी. ७.१)
प्रभुपाद: भगवान की प्रेरणा से, गुरु महाराज की आज्ञा से ये पाश्चात्य देश में कुछ अंग्रेजी कभी भाई के ऊपर ये आदेश थी बाकि जब देखा की इधर में ही सब बास्त हो गए हैं, उधर कोई गया नहीं, तब थोड़ा सोचा की मैं ही इस बुढ़ापे में थोड़ा चेष्टा करून। उस समय हमारा ७० वर्ष उम्र था १९६५। तो उधर गया नई यॉर्क में और जहाज़ में बैठ-बैठ के ये सोच रहा था की भगवान इधर क्यों भेजा। मैं तो जब उनको वैष्णव सदाचार का विषय बोलूंगा तो उसी समय ये लोग कहेंगे की महाराज आप इधर से चले जाइये। क्यूंकि सदाचार के बिना तो वैष्णव होता नहीं। यद्यपि भगवान कहे "अपि चेत सु-दुराचारो" इसका लक्षण है की सदाचार जरूर होना चाहिए वैष्णव के लिए। "सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुरा:"वैष्णव का सब देवता का गुण होना चाहिए। भागवत भक्त का एहि लक्षण है सदाचार पालन। श्रीला विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर एक जगह बताये हैं की सदाचारी वैष्णव को जिस हिसाब से वो वैष्णव है उसको दण्डवत करना जरूरी है। बाकि उनसे ज़्यादा मिलना-जुलना नहीं चाहिए, मना किये हैं। तो सदाचार वैष्णव के लिए बहुत ही जरूरी है। तो हमारा ह्रदय में एहि था की पहले तो इनको एहि बात बताया जाएग की आप लोग सदाचारी होइए। चार प्रकार का जो पाप है इसको छोड़ दीजिये। यदि भगवान कहते हैं की:
- येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
- ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रता: ॥
भगवान की सेवा में दृढ़ व्रत हो करके सेवा में नियुक्त होना ये साधारण नहीं है, "येषां त्वन्तगतं पापं" जो पाप कार्य से बिलकुल निव्रृत हो गया है उसके लिए भागवत सेवा संभव है। और नहीं तो ये भी समझना चाहिए की जो भागवत सेवा में नियुक्त है, वो सदाचारी, वो ही एक मात्र सदाचारी है। अगर यद्यपि बाहरी कुछ अभ्यास से उसे दुराचार मान लिया जाता है भगवान उसके लिए कहते हैं "अपि चेत सुदुराचारो भजते माम अनन्य भाक"। तो विदेश में जा करके, ख़ास करके न्यू यॉर्क में एक पार्क जिसका नाम है टॉम्पकिन्स स्क्वायर पार्क, उदाहर जा के मैं कीर्तन शुरू किया। एक पेड़ के तले में बैठ करके "हरे कृष्णा हरे कृष्णा" बस एक डुगडुगी ले करके, मृदंग भी नहीं था, तो ये सब भारत लोग आने शुरू किया और इधर वो बालक उपस्थित है जिसका नाम है ब्रह्मानंद स्वामी, ये पहले आ करके नाचा था। ये बालक और भी एक बालक जिसका नाम है अच्युतानंद स्वामी वो अभी हैदराबाद में खूब प्रचार कर रहा है। तो आहिस्ते-आहिस्ते ये भागवत कीर्तन के प्रभाव से "चेतो दर्पण मार्जनम भव महा दावाग्नि निर्वापणं" चैतन्य महाप्रभु की वाणी है "परम विजयते श्री कृष्णा संकीर्तनम" भगवान की कीर्तन "कीर्तनाद एव कृष्णस्य मुक्त संग परम व्रजेत" सुखदेव गोस्वामी की वाणी ये कलियुग में अनेक दोष है। ये दोष की निधि है। "कलौ दोष निधे राजन अस्ति ही एको महान गुणा" एक महा गुण है "कीर्तनाद एव कृष्णस्य मुक्त संग परम व्रजेत"। केवल मात्र भगवान के नाम "तन्नामग्रहणादिभि:" ये भागवत भक्ति शुरू होती है "तन्नामग्रहणादिभि:" जिसका फल वास्तविक ये लोग अमेरिका में प्रत्यक्ष वो है की कीर्तन करते-करते "आदौ श्रद्धा ततः साधु-संगो" तो आगे बढ़ करके आया और शिष्य होने को माँगा। मैंने उनको बोलै की देखो भाई हमारा शिष्य होने के लिए तुमको चार चीज़ छोड़नी चाहिए। एक तो अवैध स्त्री संघ छोड़ना चाहिए। इनका देश में लड़का-लड़की सब ऐसे ही रहते हैं बिना विवाह से। कुछ दिन रहा, छोड़ दिया और किसी को पकड़ लिया ऐसे चलता है एस फ्रेंड्स। तो हमर जो शिष्य होते हैं उसको ये नहीं चलेगा। तुम किसी लड़का को चाहते हो, लड़की को चाहते हो तो शादी करो, शादी करके रहो। तो ये लोग मान लिया। तो मैं शादी करा दिया। उनके जो सब बच्चे हुए हैं उनके लिए स्कूल खोल दिया, गुरुकुल। तो एक जेनेरशन चेंज हो रहा है। वैष्णव जेनेरशन। ये टूटने वाला नहीं है। हम तो वयवृद्ध हुआ है। अभी ७८ वर्ष में है। हो सकता है कभी भी चला जाऊँगा। बाकि हमारा विश्वास है ये लोग चलाएंगे मूवमेंट। ये उधर नष्ट होने वाला नहीं है। क्यूंकि एहि सिखाया जाता है की भगवान में आसक्ति बढ़ाओ। क्यूंकि भगवान स्वयं बताते हैं
- मय्य आसक्त-मनाः पार्थ
- योगं युञ्जन मद-आश्रयः"
भगवान का आश्रय ले करके ये भक्ति जो उसको अभ्यास करो। वो भक्ति जो क्या है? भगवान में आसक्ति बढ़ाना। आसक्ति तो हमलोग सभी का है। किसी का घर में है, किसी का दौलत में है, किसी का देश में है, किसी का बाल-बच्चे में है, और किसी का कुछ नहीं है तो कम-से-कम पाश्चात्य देश में खूब देखा जाता है की जिसका कुछ है नहीं फॅमिली, वो कुत्ता पालता है, बिल्ली पालता है। तो कुत्ता में आसक्ति है उसको। तो आसक्ति तो जरूर है हमारे में। ये आसक्ति गिरा कर के भगवान में लगा लीजिये, और कुछ नहीं। ये ही भगवद भक्ति है। "मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु" भगवान बता रहे हैं की सब समय हमारा चिंतन करो, मन्मना, हमारा भक्त बन जाओ, "मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु" हमारा पूजा करो और हमको नमस्कार करो जो की आपलोग का वृन्दावन में ये ही प्रथा है। सब समय आप लोग भगवान का नाम जपा करते हैं 'मन्मना'
- हरे कृष्णा हरे कृष्णा
- कृष्णा कृष्णा हरे हरे
- हरे रामा हरे रामा
- रामा रामा हरे हरे
तो इस शब्द का साथ-साथ ही भगवान का चरण में मन लीन हो जाता है। गोस्वामी लोग सिखाया है, सब आचार्य लोग सिखाया है, चैतन्य महाप्रभु खुद सिखाये हैं;
- हरेर नाम हरेर नाम
- हरेर नामैव
- केवलं कलौ नास्त्य एव नास्त्य एव नास्त्य
- एव गतिर अन्यथा
कोई मुश्किल है नहीं भगवान में आसक्ति बढ़ानी; कोई मुश्किल नहीं है विशेष करके कलियुग में केवल भगवान का नाम से ही; है ये पुराण युग से "तन्नामग्रहणादिभि:" भक्ति शुरू होती है भगवान के नाम कीर्तन से तो ये भगवना में आसक्ति बढ़ाने के लिए इनको हरी नाम जप करने को बताया गया है। तो सब समय जप करते हैंजहाँ तक होये। आपलोग देखा ही है। सब समय नाम का माला ही चलता रहता है "हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे" "मन्मना मद भक्तो" और जो नाम को जप करेगा तो भक्त तो हो ही जायेगा। "नाम चिंतामणि कृष्णा चैतन्य रस विग्रह"। भगवान और भगवान का नाम कोई भिन्न नहीं है, "अभिन्नत्व नाम नामीणो"। वहां चिंतामणि नाम है, स्वयं भगवान है। "नाम चिंतामणि कृष्णा चैतन्य रस विग्रह" रस का विग्रह है; रसों वै स। भगवान स्वय कृष्णाचंद्र रस का विग्रह है; द्वादश रस का आधार है। रूप गोस्वामी भक्ति रसमृता सिंधु में बताये हैं अखिल रसमृता सिंधु। तो भगवान रस विग्रह है। सब आनंद भगवान में ही है। भगवान से जिसका संपर्क है वो आनंदमयो भ्यासात। वो अभ्यास से केवल भगवान से संपर्क रखने से वो आनंदमय हो जाता है और भगवान का स्वरुप आनंदमय है और हमलोग भगवान का अंश हैं इसलिए हमलोग भी आनंदमय हैं। क्यूंकि भगवान को हमलोग छोड़ दिया है इसलिए निराश हो गया है। और कुछ नहीं। फिर अगर हम भगवान का चरण को पकड़ लेते हैं फिर अनादमय हो जाइये।
- दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
- मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
भगवान सचिदानंद विग्रह है। और भगवान का अंश है जीव वो भी सचिदानंद विग्रह है। बाकि अनु होने का कारण, भगवान है विभु, और हमलोग अनु। अनु होने का कारण; जैसा अग्नि का स्फुलिंग बहुत छोटे होने का कारण कभी-कभी बुझ जाता है। और फिर उसको अग्नि का न अंगार है तो आग में दे दीजिए तो फिर वो प्रज्वलित हो जायेगा। तो इसी प्रकार जब हमलोग दुनिया को भोग करने को चाहता है जैसा जगदानंद पंडित बताये हैं;
- कृष्ण भुलिया जीव भोग वांचा करे
- पशते माया तारे जपतिया धरे
जब हमलोग भोग करने क चाहते हैं वो ही माया है और कुछ नहीं। नहीं तो हमलोग भोक्ता नहीं हैं। भोक्ता भगवान; :भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्"। ये बात जब हमलोग भूल जाते हैं जो भगवान भोक्ता है और हमलोग सब उनको भोग की सामग्री उनको देने के लिए हमारा काम है। जैसे गोपी लोग करते हैं। सब समय भगवान के भोग के लिए प्रस्तुत, सब वृन्दावन वासी। वृन्दावन वासी का ये ही काम है जो भोक्ता भगवान और भगवान का भोग के लिए सब समय सेवा करने के लिए तैयार। ये वृन्दावन वासी हैं। तो बिना आसक्ति से क्यों, सभी चाहते हैं मैं भोग करूँ। अपना भोग छोड़ देता है जैसे पिता-माता। अपना भोग छोड़ देता है अपना बालक को प्रतिपालन करने के लिए। स्वाभाविक प्रेम है। प्रेमी जो है वो अपना प्रेमी को सुखी करने के लिए अपना भोग परित्याग कर देता है। दुनिया में ये बात नहीं हो सकती है परन्तु परजगत में, अप्राकृत भूमि में ये संभव है। इस जगत में कोई अपना भोग को छोड़ नहीं सकता। बाकि वैकुण्ठ जगत में उसमे एक मात्र भोक्ता ही भगवान है। और सब भोग्य है। जीव भी, जो उधर सब जीव है वो भगवान की सेवा के लिए तैयार है। वो ही चीज़ इधर सिखाया जाता है हमारा वैष्णव पद्दति में जो भगवान की सेवा में सब कोई नियुक्त करो। भगवान भी ये सप्तम अध्याय में ये ही बता रहे हैं "मय्य आसक्त-मनाः पार्थ योगं युञ्जन मद-आश्रयः" वो जो योग है भक्ति-योग वो भगवान का आश्रय लेने से ही हो सकेगा या भगवान का भक्त का आश्रय। भगवान और भगवान का भक्त से कोई अंतर नहीं है।
- साक्षाद्-धरित्वेन समस्त-शास्त्रैर
- उक्तस तथा भव्यता एव सद्भिः
- किन्तु प्रभोर यः प्रिया एव तस्य
- वंदे गुरुः श्रीचरणराविंदम्
गुरु का काम है की सब को भगवद भक्ति में लगाए। यद्यपि गुरु को भगवान के जैसे सम्मान दिया जाता है। देना भी चाहिए क्यूंकि गुरु जो है भगवान का तरफ से सम्मान ग्रहण करते हैं। बाकि वो सब सम्मान भगवान को दे देते हैं, अपने के लिए नहीं। इसलिए जैसा कोई मैनेजर है वो रूपया-पैसा जो कुछ अदा करते हैं मालिक के लिए। इसी प्रकार भागवत भक्त जो है उनको जो कुछ भी दिया जाता है सम्मान, अर्थ, और कुछ, वो सब भगवान का पास पहुँचता है इसलिए साधु, गुर, वैष्णव के सेवा के लिए शास्त्र में विधि है को उनको जो कुछ दिया जाता है वो भगवान को ही दिया जाता है। तो भगवान स्वयं कहते हैं "मद आश्रय" भगवद भक्त का आश्र। यदि साक्षात भगवान का आश्रय नहीं होता; साक्षाद भगवान का आश्रय हो भी नहीं सकता "तद विग्नयानार्थं स गुरुम ऐवा भी गच्छेत"। भगवान का आश्रय में जो है इस प्रकार भक्त का आश्रय ग्रहण करने से ही भगवान का आश्रय मिलता है। डायरेकट नहीं हो सकता है। सो भगवान बताते हैं "मद आश्रय" क्यूंकि जो व्यक्ति हमारा आश्रय में है उसका आश्रय लो। उसका आश्रय लेके ही भक्ति योग पा सकते हैं। ये भगवान एक और जगह बताते हैं "एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।"भगवद भक्ति, भगवान, भगवान का नाम, भगवान का गुण, भगवान की लीला, भगवान की वैशिष्टा, ये सब समझने के लिए वो परंपरा सूत्र से ग्रहण करना चाहिए। इसलिए हमारा वैष्णव समाज में चार संप्रदाय है, ब्रह्म संप्रदाय, रूद्र संप्रदाय, कुमार संप्रदाय, लक्ष्मीजी का श्री संप्रदाय। आप लोग श्रीजी का जो है कुमार संप्रदाय, निम्बार्क संप्रदाय। तो "सम्प्रदाय-विहीना ये मंत्रस ते निष्फल मतः"। सम्प्रदाय का आश्रय लेने से वो "मद आश्रय", वो भगवान का आश्रय। चार संप्रदाय के भीतर कोई भी आचार्य को आप आश्रय लीजिये वो भगवद भक्ति ही सिखाएंगे। भगवान में किस तरह आसक्ति बढ़ती है वो ही सीखाएंगे। उनको और कुछ काम नहीं है। तो इस लिए भगवान कहते हैं;
- मय्य आसक्त-मनाः पार्थ
- योगं युञ्जन मद-आश्रयः
तो अगर भगवान में आसक्ति हमलोग बढ़ाना चाहते हैं, मन को भगवान का आसक्ति में "स वै मन: कृष्णपदारविन्दयो-" जैसे महाराज अम्बरीष क्या था। महाराज होते हुए भी सब समय भगवान का चरण में अपने आप को लगा रखा था। ऐसी हमलोग को भी, कम-से-कम उनको अनुगमन करना चाहिए, अनुकरण नहीं अनुगमन जहाँ तक होये। क्यूंकि बड़े-बड़े महाजन, असह्रय जन को हमलोग अनुकरण नहीं कर सकते, अनुगमन कर सकते हैं। ये आचार्य "महाजन येन गतः स पंतः" महाजन लोग जैसे-जैसे रास्ता बताये हैं उसको अगर हमलोग अनुगमन करें तो हमारा उद्धार होगा। और सुखदेव गोस्वामी बताते हैं की;
- किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कशा
- आभीरशुम्भा यवना: खसादय: ।
यवन भी होये, और खसदाय: भगवान स्वयं भी बताये हैं "येऽन्ये च पापा" "मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः"। सब के लिए भगवद भजन खुला है। कोई के लिए रोक नहीं है। "मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः: पाप योनि होने से कोई हर्ज़ नहीं है। लेकिन जीव तो पापी नहीं है। जीव तो भगवान का अंश है, पवित्र है। बाकि संस्कार से उनको पाप-पुण्य का विचार आ गया है। असल में पुरुष जो है "अयं पुरुष असंग:"वेद की वाणी है जो उनका कोई समस्या नहीं है। अभी माया से, अज्ञान से संग है। एक मुहूर्त में वो समस्य सब नष्ट हो सकता है "मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते"। अगर कोई दिल से भगवान से प्रार्थना करे की भगवान इतना दिन, जन्म-जन्मांतर आप को भूले हुए थे। अब मालूम होता है आप ही हमारा स्वामी है। आप का चरण में मैं अपना जीवन समर्पण कर रहा हूँ। उसी वकत वो सब पाप से निर्मुक्त हो जायेगा। यदि वास्तविक और न पाप करे। क्यूंकि अभी भगवान का शरण में आश्रय लिया तो जरूर पाप से निर्मुक्त हो गया और फिर भी पाप करे वो ठीक नहीं। जैसे जगाई-मधाई को उद्धार किया था चैतन्य महाप्रभु। वो बहुत पाप काम करते थे। परन्तु चैतन्य महाप्रभु इतना ही शर्त किया की आज से पाप काम नहीं करोगे। फिर तुम्हारा सब हम ग्रहण कर लेंगे। इस प्रकार भगवान कहते हैं की;
- सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
- अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
यदि हमलोग मन-प्राण से वास्तविक भगवान का शरण में शरणागत हो जाता हूँ; तो फिर भगवान तो समर्थ हैं तो हमारा पाप का जो फल है "कर्माणि निर्दहति किन्तु च भक्ति-भाजां" ब्रह्म संहिता में है। जो भगवद भक्त जो है उनका सब कर्म निर्दहन कर देते हैं। तो इसलिए भगवान में आसक्ति बढ़ानी चाहिए और भगवान का जो भक्त है उनका आश्रय लेना चाहिए। और भगवद भक्ति योग जो है "श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यम आत्मनिवेदनम्" ये नव-विधा भक्ति, ये श्रवण कीर्तन से ही। असल चीज़ है श्रवण। जैसा आप लोग ये मंदिर में रोज़ाना आते हैं और भगवान का विषय श्रवण करते हैं ये बहुत ही जरूरी है। ये चैतन्य महाप्रभु उसी को ग्रहण किया। "स्थाने स्थिता: श्रुतिगतां तनुवाङ्मनोभि-" अपना-अपना स्थान में रहो। सब परिवर्तन करने का कोई जरूरत नहीं है। ब्राह्मण है ब्राह्मण रहो, क्षत्रिय है क्षत्रिय रहो, वैश्य है वैश्य रहो, शूद्र है शूद्र रहो, ब्रह्मचारी है ब्रह्मचारी रहो और गृहस्थ है गृहस्थ रहो, वानप्रस्थ है, सन्यास है अपना-अपना स्थान में स्थित रहो, अपना-अपना काम करो, साथ-साथ में भगवान का विषय सुनते रहो।
- सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो
- भवन्ति हृत्कर्णरसायना: कथा:
सुनते-सुनते-सुनते फिर सब "चेतो दर्पण मार्जनम भव महादावाग्नि निर्वापणं" वो जो अपना जो स्वरुप है वो सिद्ध हो जायेगा। भगवान से जो संपर्क है वो सिद्ध हो जायेगा। इसलिए श्रवण-कीर्तन बहुत जरूरी है और इसका फल भी बोला है। उद्धरण से आप लोग सब देख रहे हैं की ये जो सब अमेरिकन वासी, यूरोपियन वासी ये श्रवण कीर्तन करते-करते ही बड़ा-बड़ा भक्त बन रहा है और प्रचार भी खूब हो रहा है। इंडिया से इनका प्रचार बहुत जोर है, इंडिया का बहार भी। आप लोग जानते होंगे की कम समय में हमारा १०० मंदिर है सारा दुनिया में।खाली अमेरसा में ही ५० मंदिर है, यूरोप में है कोई १५-२० इसी प्रकार जापान में है, ऑस्ट्रेलिया में है, नई ज़ीलैण्ड में है, सब जगह में है। और सब राधा-कृष्णा मूर्ति पूजन हो रहा है और बड़ा सदाचार से ये लोग सब दुरपसंद छोड़ दिया है। ये भी चाय भी नहीं पीते हैं और बीड़ी भी नहीं छूते हैं। और मदिरा-मांस का बात तो छोड़ ही दीजिये। सो ऐसी सदाचार है; अवैध स्त्री संघ नहीं करते हैं और जुआ नहीं खेलते हैं और इसी प्रकार मादा तत्त्व ग्रहण नहीं करते हैं और बिलकुल भागवत प्रसाद केवल ग्रहण करते हैं। और मांसहारी का बात छोड़ दीजिये। इसी प्रकार सदाचार से हर एक जगह में आप लोग आइयेगा, तो देखिएगा ये सब तीर्थ करने वृन्दावन में आते हैं। उधर अमेरिका में नया वृन्दावन है, नई वृन्दावन, वो वेस्ट वर्जिनिया में ५०० एकर जगह लिया है, उधर गौ पालन हो रहा है और अभी फिलहाल और अभी हमलोग का रोज़ाना कम-से-कम ५०० पौंड दूध अदा होता है गाय से। बड़ा आनंद में वो लोग सब है। ये सब सिखाया जाता है। और ये सीखने के लिए वो लोग प्रस्तुत है। इधर से हमलोग का बहुत साधु-सन्यास संत को जाना चाहिए। ये समझाना चाहिए। इसका मार्किट बहुत है। हम तो अकेले ही इतना किया है अगर आप लोग सब आइयेगा तो सब सारा दुनिया वैष्णव हो जायेगा। अप्प लोग थोड़ा सा पाकिस्तान के लिए रो रहा है सब हिंदुस्तान हो जायेगा। आप लोग कोई आते नहीं। अकेले जहाँ तक हो रहा है। आप लोग आशीर्वाद कीजिये और बढ़ेंगे।
थैंक यू वैरी मच। हरे कृष्णा
डेवोटीस: जय प्रभुपाद
:
- 1973 - Lectures
- 1973 - Lectures and Conversations
- 1973 - Lectures, Conversations and Letters
- 1973-10 - Lectures, Conversations and Letters
- Lectures - India
- Lectures - India, Vrndavana
- Lectures, Conversations and Letters - India
- Lectures, Conversations and Letters - India, Vrndavana
- Lectures - Bhagavad-gita As It Is
- BG Lectures - Chapter 07
- Lectures and Conversations - Hindi
- Lectures and Conversations - Hindi to be Translated
- 1973 - New Audio - Released in May 2015
- 1973 - New Transcriptions - Released in May 2015
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