731030 - Lecture BG 07.02 Hindi - Vrndavana
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada
Prabhupāda:
- jñānaṁ te 'haṁ sa-vijñānam
- idaṁ vakṣyāmy aśeṣataḥ
- yaj jñātvā neha bhūyo 'nyaj
- jñātavyam avaśiṣyate
- (BG 7.2)
(Hindi)
Thank you very much. Hare Kṛṣṇa.
Devotees: All glories to Prabhupā . . .(cut) (end)
HINDI TRANSLATION
ज्ञानं ते हं स-विज्ञानं इदं वक्ष्याम्य अशेषतः यज ज्ञात्वा नेहा भूयो न्यज ज्ञातव्यं अवशिष्टते (भ.गी.७ २) कल हमलोग भगवान का ये भक्ति योग आसक्ति इस विषय में कुछ अर्चणा किया था की;
- मय्य आसक्त-मनाः पार्थ
- योगं युञ्जन मद-आश्रयः
यदि भगवान में आसक्ति बढ़ाया जाये उसका जो प्रोसेस है वो गति रूपा गोसामी जैसे बताये हैं की ये "आदौ श्रद्धः"। श्रद्धा का अर्थ होता है की भगवान में विश्वास। जैसे भगवान कहते हैं "सर्व धर्मान परित्यज्य मॉम एकम शरणम व्रज" जिसमे पूर्ण विश्वास। वास्तविक भगवान का चरण में शरणागत होने से सब काम सिद्ध हो जायेगा। इसका नाम है विश्वास। श्री चैतन्य चरितामृत का कविराज गोस्वामी श्रद्धा का अर्थ बताये हैं; "श्रद्धा-शब्द विश्वास कहे, सुदृढ निश्चय" इसका नाम यही श्रद्धा। सुदृढ निश्चय। भगवान कहते हैं की "सर्व धर्मान परित्यज्य मॉम एकम शरणम व्रज" सब छोड़ करके भगवान का चरण में शरणगति इसमें पूर्ण विश्वास। जो भगवान अवश्य उसको रक्षा करेंगे। "अवश्य रक्षीबे कृष्णा" "राखिष्यति इति ये विश्वास पालन" शरणागति। जो आप लोग सब वृन्दावन में बैठे हुए हैं; बहुत से कहीं जंगल में कहीं पड़े हुए हैं बाकि उनको विश्वास है कहीं भी मैं रहूँ भगवान कृष्ण का आश्रय में मैं हूँ अवश्य हमलोग का रक्षा करेंगे। इसका नाम श्रद्धा। वास्तविक कृष्णा सब के हृदय में बैठे हुए हैं; "ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।" कोई अकेले नहीं है। भगवान सब के ह्रदय में बैठे हुए हैं। केवल भगवान चाहते हैं की हमारी तरफ थोड़ा रख सके। भगवान का "सुहृदं सर्व भूतानां"। भगवान सब जीवात्मा का सुह्रद है, सब समय चाहते हैं की किस तरह से इसका मंगल हो। और इस लिए भगवान हमारे साथ-साथ में रहते हैं अंतर्यामी, परमात्मा, बंधू रूप से। तो ये भगवान में अस्कक्ति बढ़ाने के लिए पहली बात है श्रद्धा, विश्वास की भगवान में आत्म-समर्पण करने से हमारा सब काम सिद्ध हो जायेगा। "कृष्ण भक्ति कइले सर्व-कर्म कृत हय"। और दूसरा कोई काम करने का कोई आवश्यकता है ही नहीं-ज्ञान, योग, तपस्या, कोई चीज़ का जरूरत नहीं है। केवल भगवान का चरण में शरणगति। उसका नाम है आसक्ति। ये आसक्ति इसका स्तर है पहले श्रद्धा "आदौ श्रद्धया" ततो साधु संघ। उसके पश्चात साधु लोग जो भगवद भजन करने में सब समय नित्य युक्त हैं; नित्य युक्त उपासते, वो साधु है। साधु ये नहीं है की कपड़ा बदलने से साधु हो जाता है। साधु का लक्षण है की "अनन्य भाक भजते मॉम" "अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।" वो साधु है जो की सब समय भागवत भजन करते हैं। तो श्रद्द्या का बाद, इस प्रकार यदि हमारा श्रद्धया होए की भगवान का चरण में शरणगति करने से ही हमारा सब काम सिद्ध हो जायेगा। सिद्ध होने का मतलब एहि है की ये जो हमारा जन्म मरण, "जन्म मृत्यु जरा व्याधि' इसमें जो फंसे हुए हैं जीवात्मा, मैं नित्य शाश्वत "न हन्यते हन्यमाने शरीरे"। ये जो मैं जीवात्मा। हमारा शरीर नष्ट होता है बाकि मैं जीवात्मा नित्य शाश्वत है। हमारा मरण नहीं होता है। हमको तो शरीर पलटने पड़ते हैं। ये जो हमारा असुविधा है उसका नाम संसार चक्र है। इससे छुट्टी लेना। ये असल सिद्धि है।
- जन्म मृत्यु जरा व्याधि
- दुःख दोषानुदर्शनम"
ये ज्ञान है की ये जन्म मृत्यु से किस तरह से छुट्टी हो जाये। ये असल सिद्धि है। "मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये' हज़ारों-करोड़ों लोगों के भीतर वास्तविक क्या सिद्धि है वो जानने के लिए कोशिश करते हैं। "यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:"। और वो सिद्धि हज़ारों-करोड़ों का भीतर कोई-कोई भगवान को समझता है। तो पहले श्रद्धा और उसके बाद साधु-संघ। साधु-संघ जितना हमलोग करेंगे उतना वो श्रद्धा की वृद्धि होगी। और श्रद्धा की वृद्धि के साथ-साथ हमारी सिद्धि। भगवान में आसक्ति उतनी बढ़ेगी, श्रद्धया।
- आदौ श्रद्धा ततः साधु-
- संगो ’था भजन-क्रिया
साधु संघ करने से फिर भजन क्रिया। साधु लोग किस तरह से भजन करने होता है वो बताएँगे आचार्यवर। इसलिए गुरु का पास जाना चाहिए "तद्-विज्ञानार्थं स गुरुं एवाभिगच्छेत" ये वेद वाणी है। तो साधु का अर्थ होता है गुरु, साधु, गुरु, और शास्त्र। ये नरोत्तं दास ठाकुर बताते हैं "साधु-शास्त्र-गुरु-वाक्य, चित्तेते करिया ऐक्य"। साधु का पहचान है शास्त्र से और शास्त्र क्या है साधू का वचन है और गुरु क्या है जो साधु है और शास्त्र को जानते हैं। ये साधु गुरु शास्त्र। "आदौ श्रद्धा ततः साधु-संगो" साधु संघ करने से भजन क्रिया बताते हैं; और भजन क्रिया करने से अनर्थ निवृत्ति स्यात। जितना अनर्थ है; हमलोग बहुत अनर्थ में हैं वो सब निवृत्ति हूँ जायेगा। अनर्थ का मतलबा पाप है। पाप से निवृत्ति हो जाता है। जैसा हमलोग के ये अमेरिकन और यूरोपियन भक्त लोग को कहते हैं की अवैध स्त्री संघ, इसको छोड़ना चाहिए। अवैध माने विवाहित स्त्री छोड़ करके किसी दूसरी स्त्री से संपर्क नही। ये अवैध स्त्री संघ है। वैध स्त्री संघ, विवाहित स्त्री संघ। और अवैध, जिससे विवाह नहीं है उससे संपर्क रखना। ये अवैध स्त्री संघ महा पाप है। ये अनर्थ है। ये हमको आगे बढ़ने को देगा नहीं। क्यूंकि जब तक हमारा पाप से संपर्क रहेगा फिर हम भगवद भजन ठीक-ठीक से नहीं कर सकेंगे। भगवान खुद कहते हैं;
- येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्
- ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रता:
दृढव्रता:हो करके एकांत भाव से भजन करने के लिए अनर्थ से मुक्त होना पड़ेगा। पाप से निवृत्त होने पड़ेगा। अतः भजन-क्रिया, जिसका वास्तविक भजन क्रिया हो रहा है वो अनर्थ से निवृत्त हो जायेगा। उसको फिर पाप जीवन नहीं रहेगा। तो पाप जीवन क्या है? ये अवैध स्त्री संघ, और वृत्तः पशु हिंसा और नशा भांग और जुआ खेलना। ये शास्त्र में बताया है "यत्र पापश्यते " । तो अनर्थ निवृत्ति। वास्तविक भजन क्रिया होने से ये सब अनर्थ से मुक्त हो जायेगा। फिर जा करके रूचि, भगवत कथा में रूचि। फिर रूचि निष्ठा, भगवद भक्ति में निष्ठा। ये भगवत कथा सुनते-सुनते, जैसे भागवद में बताये हैं "शृण्वतां स्वकथा: कृष्ण: पुण्यश्रवणकीर्तन:" भगवान की कथा सुनते-सुनते पुण्यश्रवणकीर्तन: जो सुनता है और जो बोलता है; पुण्यश्रवणकीर्तन:ये श्रवण-कितन से ही भगवत भक्ति शुरू होती है। "श्रवणादि शुद्ध चित्त" जितना चित्त शुद्ध होगा भगवान की कथा सुनते-सुनते उतना ही साधना वृद्धि होगी। तो "श्रवणादि शुद्ध चित्त करए उदय"। भगवद भक्ति सब के ह्रदय में है। वो बाहरी चीज़ नहीं है। जैसे ये यूरोपियन अमेरिकन भक्त लोग है, ये कृष्ण भक्त कैसे हो गया? सबके भीतर कृष्णा भक्ति है केवल "श्रवणादि शुद्ध चित्त करए उदय"। उसको उदय करना चाहिए। चीज़ भीतर में है। केवल साधु-संघ में भगवान का विषय में सब श्रवण करते-करते चेतो दर्पण मार्जनम, चित्त दर्पण मार्जन हो जाता है फिर अपने को देख सकता है की हमारा परिस्थिति क्या है। तो "श्रवणादि शुद्ध चित्त करए उदय" तो रूचि, भगवान का कथा में रूचि ोहिर निष्ठा, भगवद भक्ति में निष्ठां। जितना चित्त शुद्ध होते जायेंगे उतना निष्ठा बढ़ती जाएगी। ये भागवत में बताया गया है;
- शृण्वतां स्वकथा: कृष्ण:
- पुण्यश्रवणकीर्तन:।
- हृद्यन्त:स्थो ह्यभद्राणि :
- विधुनोति सुहृत्सताम्॥
भगवान सब के लिए सुह्रत है "सुहृदं सर्व भूतानां" परन्तु सतां, जो भक्त है उसके लिए विशेष सुह्रत है। तो भगवान सब का ह्रदय में बैठे हुए हैं। भगवान जब देखेंगे की भगवान की कथा में रूचि बढती है तो उनको ह्रदय में बैअत करके विधुनोति, हृद्यन्त:स्थो ह्यभद्राणि : ये लोभ और काम ये दो चीज़ अभद्र चीज़ है। इसको नाश कर देते हैं भगवान।
- शृण्वतां स्वकथा: कृष्ण:
- पुण्यश्रवणकीर्तन:।
- हृद्यन्त:स्थ
ह्रदय में हैं। माया की समस्या होने से हमारा ह्रदय अपवित्र है। ये काम और लोभ, रजो गुण, तमो गुण ये हमारा ह्रदय में बैठे हुए हैं। "तदा रजस्तमोभावा: कामलोभादयश्च ये" रजो गुण, तमो गुण का ये लक्षण है; काम और लोभ, अत्यंत लोभ प्रयास। हमको दो रोटी मिलने से काम चल सकता है। बाकि हमको दस रोटी चाहिए। इसलिए दिन भर हम इधर-उधर घुमते हैं। तो रोटी में समस्त नहीं हैं, क्यों? वो काम और लोभ हरे में बैठे हुए हैं। इसलिए भगवान की कथा सुनना चाहिए। इस तरह से रूचि, निष्ठा, फिर आसक्ति, उसका बाद भाव और उसका बाद;
- अथाशक्तिस ततो भावस
- ततः प्रेमाभ्युदनचति
- साधकानाम अयं प्रेमणः
- प्रादुर्भावे भवेत् क्रमः
ये वास्तविक ये चीज़ जो है, भगवान में इस तरह से आसक्ति बढ़ती है। ये जो ज्ञान है भगवान स्वयं बता रहे हैं; "ज्ञानं ते हं स-विज्ञानं" ज्ञान और विज्ञान; ज्ञान का अर्थ होता है थेओरटिकल, ब्रह्म ज्ञान, ये थ्योरेटिकल है और सविज्ञान भक्ति। ब्रह्म ज्ञान, हम समझ गया "अहम् ब्रह्मास्मि" केवल समझने से काम नहीं चलेगा। सविज्ञान, उसको काम में ले आना चाहिए। काम में नहीं ले आने से फिर हमारा पतन हो जायेगा "आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं तत: पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्घ्रय:"। परिश्रम करके, तपस्या करके ब्रह्म ज्ञान लाभ करते हुए भी वो फिर गिर जाते हैं "पतन्त्यधो"। क्यों? "ऽनादृतयुष्मदङ्घ्रय:" ये ब्रह्म ज्ञानी लोग वो भगवान का चरण को अनादर करते हैं, भगवान निराकार है। उनका चरण नहीं है, उनका हाथ नहीं है, पैर नहीं है। इसलिए वो गिर जाते हैं "ऽनादृतयुष्मदङ्घ्रय:" "आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं तत: पतन्त्यधो" इसलिए ज्ञान जो है वो भगवान को समझना "ज्ञानं सविज्ञानं, भगवान कहते हैं "ज्ञानं ते हं स-विज्ञानं इदं वक्ष्याम्य अशेषतः" मैं तुमको बता रहा हूँ। तो वास्तविक भगवान का विषय भगवान से ही मालूम हो सकता है। स्पेक्युलेशन करने से मनो-धर्मी भगवान ऐसी है, भगवान वैसी है, नहीं। भगवान जिस तरह से है तो भगवान स्वयं आ करके ही समझाते हैं द्वि-भुज मुरलीधर, श्यामसुंदर। तो फिर उनकी विषय कल्पना करने की क्या जरूरत है? मायावादी लोग कहते हैं कल्पना करो। कल्पना करने का क्या जरूरत है? जब भगवान साक्षात सामने मौजूद है। इधर जब आप लोग सब जब दर्शन करने को आते हैं तो भगवान को ही दर्शन करने को आते हैं की कोई और चीज़ को दर्शन करने को आते हैं। भगवान तो इधर स्वय मौजूद है तो फिर हमको कल्पना करने का क्या जरूरत है। ये ही अज्ञान है, ज्ञान नहीं है जो रहम को कल्पना करो। ब्रह्म का कोई कल्पना कर भी सकता है क्या? नहीं, इसलिए भगवान कहते हैं "ज्ञानं ते हं स-विज्ञानं" आप लोग जो सब ज्ञानी हैं, ब्रह्म ज्ञानी तो स-विज्ञानं। विज्ञान सहित इसको सुनिए। "ज्ञानं ते हं स-विज्ञानं इदं वक्ष्याम्य अशेषतः यज ज्ञात्वा"। यदि भगवान को आप समझ गया यज ज्ञात्वा, भगवान को समझना कोई साधारण बात नहीं है परन्तु जब भगवान कृपा करके समझाते हैं तो तब हमलोग को कुछ मालुम होता है।
- सेवन मुखे ही जिह्वादौ
- स्वयं एव स्फूर्ति आदः
- अत: श्री-कृष्ण-नामादि
- न भवेद ग्राह्यं इन्द्रियै:
ये जो हमारा इन्द्रिय है इस इन्द्रिय द्वारा भगवान का विषय, भगवान का नाम, भगवान का गुण, भगवान का रूप, भगवान का परिकर, वैशिष्ट ये जड़ इन्द्रिय द्वारा समझा नहीं जाता है।
- अत: श्री-कृष्ण-नामादि
- न भवेद ग्राह्यं इन्द्रियै:
- सेवन मुखे ही जिह्वादौ
यदि हमलोग जिह्वा को भगवान की सेवा में लिप्त करता हूँ तो भगवान स्वयं उपस्थित होते हैं। उसका नाम स-विज्ञान। और भगवान को समझने से सब ज्ञान लाभ हो जाता है। जैसे "यस्मिन् विज्ञाते सर्वं एवं विज्ञातां भवतिः" भगवान कहते हैं "यज ज्ञात्वा नेहा भूयोऽन्यज ज्ञातव्यं अवसिष्यते" और कुछ जानने के लिए आवश्यकता है नहीं। अद्वय ज्ञान भगवान, ब्रह्म, परमात्मा, और भगवान। "ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते" ये एक ही वस्तु है जो अपना समझने के लिए अलग-अलग दृष्टिकोण से, कोई भगवान को बाह्म रूप से उपलब्ध करता है, कोई परमात्मा रूप से और कोई स्वयं भगवान रूप से। जो ज्ञानी लोग हैं क्यूंकि अपनी बुद्धि से भगवान को समझना चाहते हैं इसलिए उसको निर्विशेष, निराकार ब्रह्म का उपलब्ध होता है। जो भी लोग सब समय भगवान का चिंतन करते हैं; "ध्यानावस्थित-तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो" वो भगवान को परमात्मा रूप से देख़ते हैं। और भक्त लोग साक्षात् ब्रजेन्द्र नंदन हरी कृष्ण को देखते हैं।
- प्रेमाञ्जन-च्छुरित-भक्ति-विलोचनेन
- संतः सदावै हृदयेषु विलोकयन्ति
जिसका भागवत प्रेम है वो चौबीस घंटा भगवान का ही दर्शन करते हैं, और कुछ नहीं देखते हैं। वो ही चैतन्य चरितामृत बताते हैं;
- स्थावर-जंगम देखे, ना देखे तारा मूर्ति
- सर्वत्र हया निज इष्ट-देव-स्फूर्ति
जो लोग भागवत प्रेमी है वो कोई भी चीज़ देखते हैं उसका भगवान का स्मरण होता है, वो भगवान को देखता है। स्थावर-जंगम, कोई पेड़ भी देखता है, कोई होती भी देखता है, कोई मनुष्य भी देखता है "पण्डिताः सम दर्शिनः" वो देखता है की भगवान का सब,
- परस्य ब्राह्मणः शक्तिः
- सर्वेदं अखिलं जगत
ये भगवान की शक्ति प्रकृति का विस्तार है। असल में भगवान दीखते हैं। इसलिए भागवत प्रेम, आसक्ति बढ़ानी चाहिए तो सब समय भगवान का दर्शन होगा।
- प्रेमांजना-च्युरित-भक्ति-विलोचनेन
- संत:सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति
- यं श्यामसुंदरं अचिन्त्य-गुण-स्वरूपं
- गोविन्दं आदि-पुरुषं तं अहम् भजामि
ये ब्रह्म संहिता में है। जिसका भगवद प्रेम है वो सब समय भगवान को दर्शन करता है। नास्तिक लोग बोलते हैं की भगवान को दिखा सकते हैं। भई भगवान को देखने के लिए आँख होना चाहिए। ये मंदिर में आते हैं, कोई भगवान को देख करके मूर्छित हो जाता है और कोई बोलता है की ये पत्थर का मूर्ति है, इसको देख के क्या लाभ। ये तो प्रेम का बात है न। भगवद दर्शन करने के लिए आँख भी होना चाहीये। चैतन्य महाप्रभु जग्गनाथ मंदिर में प्रवेश किया, देखते ही जग्गनाथ को मूर्छित हो गया। उनका भगवद दर्शन और साधारण नास्तिक जो जाते हैं, ये लकड़ी का मूर्ति है इसको देखने के लिए क्यों इतना आदमी आते हैं। इसलिए "प्रेमांजना-च्युरित-भक्ति-विलोचनेन"। भक्त लोग ही भगवान को दर्शन कर सकते हैं। "भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:"। ज्ञानी, योगी, वास्तविक भागवत दर्शन नहीं कर सकते हैं। स विज्ञानं दर्शन नहीं होता है उसमे। थोड़ा ज्ञान से थोड़ा बहुत आगे पहुँच सकता है। बाकि असल दर्शन करने वाला भक्त लोग ही है। क्यूंकि भगवान स्वयं बताते हैं की "भक्त्या माम अभिजानाती" भगवान कहीं नहीं बताये हैं जो ज्ञान से हमको देख सकता है, ये योग से हमको देख सकता है, नहीं। "भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:" भगवान को तात्त्विक समझना चाहिए, वो भक्ति से ही संभव है। भक्ति से क्यों संभव है?क्यूंकि भक्ति का वश हो जाते हैं भगवान और जो भक्त होते हैं उनको दर्शन देते हैं। वो भगवान कृपा करते भक्त को ही दर्शन देते हैं। "नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः" द्दोसरे के लिए योगमाया द्वारा आवृत रहते हैं। दुसरे के लिए भगवान का दर्शन नहीं कर सकते हैं। जैसे प्रह्लाद महाराज जब भगवान नर्सिंघ्देव; प्रह्लाद महाराज का ऊपर अत्याचार हो रहा था उस समय भगवान नरसिंघदेव खम्बा में प्रह्लाद जी को दर्शन दिया की डरो नहीं, हम इधर हैं। तो प्रह्लाद महाराज देख रहा था। उनका पिताजी देखा और उनको पुछा की क्यों तुम्हारा भगवान क्या खम्बा में है? वो बोलै हाँ पिताजी खम्बा में है। तो क्रोध से खम्बा को तोड़ दिया। तो इसी प्रकार भगवान का जो भक्त होते हैं वो सब जगह में भगवान को दर्शन करते हैं। और जो भगवान का अभक्त होते हैं, वो भगवान सामने भी रहने से दर्शन नहीं कर सकते हैं। "योगमायासमावृतः" इसलिए वो सविज्ञान, ये विज्ञान जो है भक्ति, भक्ति योग उसको समझना चाहिए तब जाके भगवान का दर्शन होगा।
- ज्ञानं ते हं स-विज्ञानं
- इदं वक्ष्याम्य अशेषतः
- यज ज्ञात्वा नेहा भूयो न्यज
- ज्ञातव्यं अवशिष्टते
और भगवद दर्शन होने से, भगवान का प्रेम होने से, फिर उनका साधना और तपस्या सब ख़तम हो जाता है। आखरी बात है भागवत दर्शन। "आराधितो यदि हरिस तपसा तत: किम" यदि भगवान का आराधना हुआ, भगवान की भक्ति लाभ हुई फिर तपस्या का और क्या जरूरत है। सब तपस्या का फल है भगवद भक्ति लाभ। और "न आराधितो यदि हरिस तपसा तत: किम"। और यदि भगवान का ही दर्शन नहीं हुआ फिर झूटमूठ तपस्या करने से क्या लाभ होगा। "श्रम ऐवा ही केवलं" भगवद भक्ति उपलब्धि नहीं होने से केवल तपस्या से क्या लाभ होगा।
- धर्म: स्वनुष्ठित: पुंसां
- विष्वक्सेनकथासु य।
- नोत्पादयेद्यदि रतिं
- श्रम एव हि केवलम्॥
सब अपना-अपना धर्म को खूब अच्छी तरह से याजन करते हैं "धर्म: स्वनुष्ठित: पुंसां" यदि भगवान की कथा में रूचि नहीं है, आसक्ति नहीं है, तो शास्त्र कहते हैं की वो केवल परिश्रम ही है, उससे कुछ लाभ नहीं है, "श्रम एव हि केवलम्"। "स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे"। वो धर्म याजन सबसे बढ़िया है, फर्स्ट-क्लास, क्या चीज़ है? "यतो भक्तिर अधोक्षजे" जिस धर्म याजन करने से भगवान में भक्ति होती है। इस प्रकार भक्ति "अहैतुकी अप्रतिहता" कोई हेतु नहीं, भगवान से कुछ लाभ कर लेंगे, ये बात नहीं। भगवान प्रभु मैं भगवान का नित्य दास, इसलिए हमारा उचित है भगवत सेवा। इस प्रकार जिसको ज्ञान है वो ब्रह्म ज्ञान। और जब भक्ति में वो लग जाते हैं तो वो मुक्त पुरुष। वास्तविक।
- इहा यस्य हरेर दास्ये
- कर्मणा मनसा गिरा
भगवान की सेवा में मन, प्राण, शरीर, और सब कुछ लगा हुआ है। वो किसी प्रकार का अवस्था में होये, वो "जीवन मुक्त स उच्यते"। उसके लिए मुक्ति का कोई आवश्यकता नहीं है। और मुक्ति प्राप्त होता है;
- मुक्तिर हित्वान्याथा-रूपं
- स्वरूपेण व्यवस्थातिः
चैतन्य महाप्रभु बताये हैं की जीव का स्वरुप है की नित्य कृष्ण दास। जो भगवान का सेवा में सब समय नियुक्त है वो मुक्त है, उसका नाम ही मुक्ति है। मुक्ति का अर्थ और कोई नहीं है की हमारा एक सिर है, चार सिर हो जायेगा, एक हाथ है दस हाथ हो जायेगा, ये बात नहीं है। ज माया को सेवा छोड़ करके, जब भागवत सेवा में नियुक्त हो जाते हैं, उसका नाम है मुक्ति। हित्वान्याथा-रूपं अभी हमलोग अन्यथा सेवा के रूप में हैं। कोई देश का सेवा में है, कोई अपना फैमिली का सेवा में है, कोई परिवार का सेवा में है, कोई पाना समाज का सेवा में है, और कुत्ता का सेवा में है, बिल्ली का सेवा में है, ये सब सेवा सब छोड़ करके जब भागवत सेवा में नियुक्त हो जाएं उसका नाम है मुक्ति। इसलिए भगवद भक्त के लिए मुक्ति का कोई आवश्यकता है नहीं। भगवद भक्त सब मुक्त है। "मुक्तिर हित्वान्याथा-रूपं:स्वरूपेण व्यवस्थातिः"। ये स विज्ञानं ,इसका नाम है विज्ञान। ये सब समझना चाहिए की भगवद सेवा, भक्ति, भगवद रूप, भगवद गुण, भगवद परिकर, भगवद वैशिष्टा ये सविज्ञान, इसका नाम है विज्ञान। ज्ञान का अर्थ होता है ब्रह्म ज्ञान "अहम् ब्रह्मास्मि" "मैं ये शरीर नहीं हूँ" इसका नाम है ज्ञान। और भगवत तत्त्व ज्ञान इसका नाम है सविज्ञान। इसलिए भगवान स्वयं भगवत ज्ञान दे रहे हैं। तो हमलोग को इसको लेना चाहिए, जीवन में अपनाना चाहिए, हमारा जीवन सम्पूर्ण हो जायेगा। और मनुष्य जीवन का एक मात्र कार्य है की ये जन्म मृत्यु से छुट्टी। ये वो समझता नहीं है। वो समझता है की हमको एक बड़ा मकान, स्काई स्क्रेपर बिल्डिंग, जैसे अमेरिका में सब बनाते हैं १०२ मंज़िल। आजकल १०४-५ हो गया है। पहले जब हम नई यॉर्क में गया था उधर बहुत भारी बिल्डिंग, एम्पायर बिल्डिंग था १०२ मंज़िल। ऊपर छत का ऊपर से नीचे मोटर-कार मालूम होता है मैच-बॉक्स के जैसे, इतना छोटा-छोटा। तो आदमी समझते हैं की इस प्रकार एक बिल्डिंग बना लेने से और दो-चार मोटर रखने से जीवन सफल हो जायेगा। ये बात नहीं है। जीवन सफल तभी होगा की जब भगवान को हमलोग समझेंगे। भगवान को समझना साधारण बात नहीं है परन्तु जहाँ तक भगवान समझा रहे हैं खुद भगवद-गीता में अगर इतना ही हमलोग समझ जाएँ तो "जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः" ये तात्विक यदि हमलोग समझ जाएँ तो "त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति" ये जीवन सफल हो जायेगा। केवल कृष्ण को भक्ति द्वारा यदि थोड़ा ही बहुत समझ जाएँ और क्या समझना है की वो हमारा प्रभु है और मैं उसका नित्य दास, बस इतना ही समझना है, और क्या समझना है। इतना ही जो समझ गया उसका जीवन सफल हो गया और वो काम में लग गया सविज्ञानं। इतना मुश्किल नहीं है। बाकि हमारा चित्त दर्पण जो है बहुत गन्दा भरा हुआ है। इसलिए सब समय भगवत कीर्तन करनी चाहिए। ये चैतन्य महाप्रभु का उपदेश है।
- चेतो-दर्पण-मार्जनं
- भव-महा-दावाग्नि-निर्वापनं
- श्रेयः-कैरव-चंद्रिका-वितरणं
- विद्या-वधू-जीवनम्
- आनंदंबुधि-वर्धनम
- प्रति-पदं पूर्णामृतस्वादनम
- सर्वात्मा-स्नपनम परम विजायते
- श्री-कृष्ण-संकीर्तनम
- कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत्
केवल भगवान का कीर्तन, भगवान का नाम, गुण, लीला, परिकर जो है और एक विशेष करके महामंत्र कीर्तन;
- हरे कृष्णा हरे कृष्णा
- कृष्णा कृष्णा हरे हरे
- हरे रामा हरे रामा
- रामा रामा हरे हरे
तो सब समय कीर्तन करते रहिये। आप लोग सब वृन्दावन वासी हैं। आपको ज्यादा समझाने का आवश्यकता है नहीं। बाकि सत्संग हो रहा है भगवान का नाम गुण इतना ही उसको रीपीटेडली समझने नित्यं भागवतसेवयाकी चेष्टा करेंगे उतना ही हमारा ह्रदय जो है जिसमे काम क्रोध से भरा हुआ है वो नष्ट हो जाएगा "तदा रजस्तमोभावा: कामलोभादयश्च ये" "नित्यं भागवतसेवया" इसलिए ऐसी बताये हैं की "नित्यं भागवतसेवया"। ये बात नहीं है की सप्ताह कर लिया बस, नहीं। ये सप्ताह सेवा हम तो नहीं देखा कहीं भी भगवत में। भागवद में कहते हैं "नित्यं भागवतसेवया"।
- शृण्वतां स्वकथा: कृष्ण:
- पुण्यश्रवणकीर्तन:
- हृद्यन्त:स्थो ह्यभद्राणि
- विधुनोति सुहृत्सताम्
- नष्टप्रायेष्वभद्रेषु
- नित्यं भागवतसेवया
अभद्र जो है बिलकुल नष्ट नहीं हुआ है तब भी नष्टप्रायेष्व, प्रायः नष्ट हो गया है इस प्रकार अवस्था में नष्ट। ये हो सकती है नित्यं भागवत सेवया। नित्यं, सब समय भगवान, भागवत, भगवान का संपर्क से। दो प्रकार का भागवत होते हैं, ग्रन्थ भागवत और भक्त भागवत। तो बह्गवात सेवा। गुरु है भक्त भागवत और ग्रन्थ भागवत है गुरु का प्रमुख, उससे भागवत सुने। जो वास्तविक जीवन जिसका भागवतमय। सतां प्रसंगात इस प्रकार उस व्यक्ति का मुखारविंद से भागवत की कथा सुनिए। सब समय, ये नहीं है की एक सप्ताह सुन लिया बस काम हो गया, सब समय नित्यं भागवत सेवया। "भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी" ये निष्ठा है, नैष्ठिकी भक्ति तभी हो सकती है। नष्टप्रायेष्वभद्रेषु, ये अभद्र को मिटाना चाहिए। ये अभद्र मिट सकता है, सब शास्त्र का ये सिद्धांत है "चेतो दर्पण मार्जनम परम विजयते श्री कृष्णा संकीर्तनम" ये संकीर्तन द्वारा चेतो दर्पण मार्जन ही गया। फिर आहिस्ते-आहिस्ते सब चीज़ प्रकाश हो जायेगा ह्रदय में फिर भगवान से बात-चीत कर सकते हैं। भगवान ही बताये हैं ऐसा करो; "तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्" जो भगवान की भक्ति में, भगवान की सेवा में सब समय प्रीति से, ये नहीं की ये काम हमको करना है चलो थोड़ा कर लेते हैं, नहीं, प्रीति से, भाव से की भगवान हमारा प्रभु है, हमको सेवा जरूर करनी चाहिए। इस प्रकार प्रीति से जो करते हैं उससे भगवान बात-चीत करते हैं।
- तेषां सततयुक्तानां
- भजतां प्रीतिपूर्वकम्
- ददामि बुद्धियोगं तं
- येन मामुपयान्ति ते
ये बुद्धि योग या भक्ति योग और हमको बताते हैं येन मामुपयान्ति ते। इसके द्वारा आहिस्ते-आहिस्ते वो भगवान के पास पहुँच जाते हैं। "यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम"। एहि भगवद-गीता का उपदेश है, सब शास्त्र का उपदेश है। इसी तरह से जन्म-मृत्यु का हाथ से छुट्टी लेकरके भगवान का पास पहुँच जाना और उनकी सेवा में नियुक्त हो जाना।
थैंक यू वैरी मच। हरे कृष्णा
डेवोटीस: आल ग्लोरिस टू श्रीला प्रभुपाद
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